लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट: आज़ाद हिंद फ़ौज के वीर योद्धा
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में कई वीर योद्धाओं ने अपना सर्वस्व बलिदान किया। उनमें से एक प्रमुख नाम है लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट, जिन्होंने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फ़ौज (INA) के लिए वीरतापूर्वक लड़ते हुए अपने प्राण न्योछावर कर दिए। उनका जीवन साहस, देशभक्ति और अद्वितीय बलिदान का प्रतीक है।
प्रारंभिक जीवन और सैन्य सेवा
लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट का जन्म 15 अप्रैल 1914 को उत्तराखंड के चमोली जिले के खंडूड़ी गांव में हुआ। उनके पिता दयाल सिंह बिष्ट एक साधारण किसान थे, लेकिन उन्होंने अपने बेटे को बचपन से ही अनुशासन और परिश्रम का पाठ पढ़ाया।
ज्ञान सिंह बचपन से ही वीरता और देशभक्ति के गुणों से प्रेरित थे। 12 सितंबर 1932 को वे ब्रिटिश भारतीय सेना की रॉयल गढ़वाल रेजिमेंट में भर्ती हो गए। उनकी सैन्य दक्षता और वीरता को देखते हुए उन्हें जल्द ही विशेष जिम्मेदारियाँ सौंपी गईं।
द्वितीय विश्व युद्ध और आज़ाद हिंद फ़ौज में योगदान
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान, ब्रिटिश सेना में सेवा करते हुए ज्ञान सिंह बिष्ट को जापान के खिलाफ लड़ने के लिए मलाया (अब मलेशिया) भेजा गया। 1942 में जब जापान ने सिंगापुर और मलाया में ब्रिटिश सेना को पराजित किया, तो हजारों भारतीय सैनिक जापानियों के अधीन हो गए।
इसी दौरान रास बिहारी बोस और बाद में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में आज़ाद हिंद फ़ौज (INA) का गठन किया गया। नेताजी ने भारतीय सैनिकों से ब्रिटिश सेना छोड़कर भारत माता की स्वतंत्रता के लिए लड़ने का आह्वान किया। लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट ने नेताजी के इस आह्वान को स्वीकार कर लिया और आज़ाद हिंद फ़ौज में शामिल हो गए।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने उनकी बहादुरी को देखते हुए उन्हें सेकेंड लेफ्टिनेंट का पद प्रदान किया और नेहरू ब्रिगेड में कमांडर नियुक्त किया। उनका प्रमुख कार्य ब्रिटिश सेना के खिलाफ मोर्चा संभालना था।
इरावदी मोर्चा और वीरगति
1945 में बर्मा (अब म्यांमार) के इरावदी नदी के पास एक महत्वपूर्ण युद्ध हुआ, जिसे इरावदी युद्ध कहा जाता है। इस युद्ध में लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट और उनकी 'बी' कंपनी को ब्रिटिश सेना के खिलाफ लड़ने का आदेश दिया गया।
- 16 मार्च 1945 को आज़ाद हिंद फ़ौज की 'ए' कंपनी ने सादे पहाड़ी पर अंग्रेजों को पराजित किया।
- इसके बाद, 17 मार्च 1945 को अंग्रेजों ने 'बी' कंपनी पर हमला किया, जिसकी कमान लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट के हाथों में थी।
- उनकी कंपनी में केवल 98 जवान थे, जबकि सामने 6 गुना बड़ी ब्रिटिश सेना थी। उनके पास संसाधन भी सीमित थे, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
- जब अंग्रेजों ने टैंकों और बख्तरबंद गाड़ियों के साथ हमला किया, तो ज्ञान सिंह बिष्ट ने अपने सैनिकों को खाइयों से बाहर निकलकर सीधा मुकाबला करने का आदेश दिया।
- 'भारत माता की जय' और 'नेताजी अमर रहें' के नारों के साथ भारतीय सैनिकों ने अंग्रेजों पर धावा बोल दिया।
इस युद्ध में दो घंटे तक चले भीषण संघर्ष में 40 भारतीय सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए, लेकिन उन्होंने अंग्रेजों के चार गुना अधिक सैनिकों को मार गिराया।
युद्ध के दौरान लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट को माथे में गोली लगी, लेकिन वे तब तक लड़ते रहे जब तक कि अंतिम सांस नहीं ले ली। 17 मार्च 1945 को, 31 वर्ष की आयु में, वे वीरगति को प्राप्त हुए।
लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट की वीरता का महत्व
- उनका बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरणादायक बन गया।
- आजाद हिंद फ़ौज के सैनिकों के मनोबल को ऊंचा करने में उनकी वीरता ने अहम भूमिका निभाई।
- उनकी याद में उत्तराखंड में कई स्थानों पर स्मारक बनाए गए हैं।
आज, 17 मार्च को उनकी पुण्यतिथि के रूप में याद किया जाता है, जब वे मातृभूमि के लिए सर्वोच्च बलिदान देकर अमर हो गए।
निष्कर्ष
लेफ्टिनेंट ज्ञान सिंह बिष्ट केवल एक नाम नहीं, बल्कि एक आदर्श, एक प्रेरणा और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का गौरवशाली अध्याय हैं। उनकी शहादत यह सिद्ध करती है कि स्वतंत्रता की कीमत बहादुरों के खून से चुकानी पड़ती है।
उनका जीवन हर भारतीय के लिए प्रेरणा है और उनकी वीरता की गाथा सदियों तक अमर रहेगी।
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