क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त: एक अमर क्रांतिकारी जिसकी गूंज संसद में गूंज उठी(18 नवंबर, 1910- 20 जुलाई 1965)

क्रांतिकारी बटुकेश्वर दत्त: एक अमर क्रांतिकारी जिसकी गूंज संसद में गूंज उठी(18 नवंबर, 1910- 20 जुलाई 1965)

बटुकेश्वर दत्त भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन चमकते सितारों में से एक थे जिनका नाम शहीद-ए-आजम भगत सिंह के साथ भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में अंकित है. वे न केवल एक अदम्य साहसी योद्धा थे, बल्कि उन्होंने अपने जीवन में ब्रिटिश हुकूमत के अन्यायपूर्ण कानूनों के विरुद्ध अपने प्राणों की बाजी लगाकर एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई. केंद्रीय विधान सभा (सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली) में बम फेंकने की उनकी ऐतिहासिक घटना ने उन्हें अमर कर दिया और भारतीय जनमानस में स्वतंत्रता की अलख जगाई.

परिचय और प्रारंभिक जीवन

बटुकेश्वर दत्त का जन्म 18 नवंबर, 1910 को बिहार के ओरा ग्राम में हुआ था, जो उस समय बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था. उनके पिता का नाम गोस्वामी कंतेश्वर दत्त था. बटुकेश्वर ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा बिहार और फिर कानपुर में प्राप्त की. बचपन से ही वे राष्ट्रभक्त और साहसी स्वभाव के थे. पढ़ाई के दौरान ही उनकी रुचि क्रांतिकारी गतिविधियों में बढ़ने लगी और यहीं उनकी मुलाकात भगत सिंह से हुई, जिसने उनके जीवन की दिशा बदल दी.

क्रांतिकारी गतिविधियाँ और भगत सिंह से संबंध

बटुकेश्वर दत्त जल्द ही हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) से जुड़ गए, जो उस समय के सबसे सक्रिय और प्रभावशाली क्रांतिकारी संगठनों में से एक था. इस संगठन में भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, राजगुरु और सुखदेव जैसे महान क्रांतिकारी शामिल थे. कानपुर में बटुकेश्वर और भगत सिंह का मिलन हुआ, और यहीं से एक मजबूत वैचारिक और क्रांतिकारी साझेदारी की शुरुआत हुई, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी.

दिल्ली असेम्बली बम कांड (8 अप्रैल 1929)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में 8 अप्रैल 1929 का दिन एक महत्वपूर्ण मोड़ है. ब्रिटिश सरकार द्वारा लाए गए 'पब्लिक सेफ्टी बिल' और 'ट्रेड डिस्प्यूट बिल' के विरोध में बटुकेश्वर दत्त और भगत सिंह ने दिल्ली स्थित केंद्रीय विधान सभा में बम फेंका.
इस घटना के मुख्य बिंदु इस प्रकार हैं:

 * उद्देश्य: इस बम का उद्देश्य किसी को चोट पहुँचाना नहीं, बल्कि बहरी ब्रिटिश सरकार के कानों तक भारतीय जनता की आवाज़ पहुँचाना था. यह केवल एक आवाज़ पैदा करने के लिए था, जिससे सरकार को जनता के असंतोष का पता चले.

 * नारे: बम फेंकने के बाद, दोनों क्रांतिकारियों ने इंकलाब जिंदाबाद! (क्रांति अमर रहे!) और साम्राज्यवाद मुर्दाबाद! (साम्राज्यवाद का नाश हो!) के बुलंद नारे लगाए.

 * आत्मसमर्पण: उन्होंने घटनास्थल पर ही आत्मसमर्पण कर दिया, क्योंकि उनका मकसद भागना नहीं, बल्कि अपने संदेश को दुनिया तक पहुँचाना था.

 * प्रभाव: यह कांड अंग्रेजों के लिए एक बड़ा मानसिक झटका था और इसने भारत की युवा पीढ़ी को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया.

कारावास और यातना

दिल्ली असेंबली बम कांड के बाद, बटुकेश्वर दत्त को उम्रकैद की सजा सुनाई गई और उन्हें कुख्यात काला पानी (अंडमान की सेलुलर जेल) भेजा गया. जेल में उन्हें अत्यंत अमानवीय यातनाएं दी गईं. भोजन, स्वास्थ्य सुविधाओं और मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया.
जेल में बटुकेश्वर दत्त ने भगत सिंह और अन्य कैदियों के साथ मिलकर ऐतिहासिक भूख हड़ताल की. उनकी प्रमुख मांगें थीं:

 * राजनीतिक कैदी का दर्जा

 * उचित भोजन, पुस्तकें और अन्य मूलभूत सुविधाएं

 * कैदियों के साथ मानवीय व्यवहार

उनकी यह भूख हड़ताल एक सशक्त विरोध का प्रतीक बन गई, जिसने जेल के अंदर भी अधिकारों के लिए संघर्ष को जीवित रखा.

रिहाई और उपेक्षा

बटुकेश्वर दत्त को 1938 में रिहा किया गया, लेकिन जेल की अमानवीय यातनाओं ने उनके स्वास्थ्य को पूरी तरह से चौपट कर दिया था. इसके बावजूद, वे देश की सेवा में लगे रहे और स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े रहे. हालांकि, भारत की आजादी के बाद उन्हें सरकार की ओर से कोई विशेष सम्मान या सहायता नहीं मिली, जिससे वे गहरे अवसाद में चले गए. यह देश के उन गुमनाम नायकों में से एक थे जिनकी कुर्बानियों को आजादी के बाद भुला दिया गया.

मृत्यु और अंतिम उपेक्षा

20 जुलाई 1965 को बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली के एम्स (AIIMS) अस्पताल में अंतिम सांस ली. यह एक दुखद विडंबना थी कि जिस देश के लिए उन्होंने अपनी जवानी जेल में बिताई, स्वतंत्र भारत की सरकार से उन्हें अंतिम समय में भी कोई विशेष सहायता नहीं मिली.
उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार भगत सिंह की समाधि के निकट हो. उनकी यह इच्छा पूरी हुई और उनका अंतिम संस्कार हुसैनीवाला (पंजाब) में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की समाधियों के पास किया गया. यह एक प्रतीकात्मक मिलन था उन तीन महान क्रांतिकारियों के साथ, जिनके साथ उन्होंने देश की आजादी का सपना देखा था.

बटुकेश्वर दत्त का ऐतिहासिक महत्व

बटुकेश्वर दत्त का जीवन और उनके कार्य कई मायनों में ऐतिहासिक महत्व रखते हैं:

 * संघर्ष का स्वरूप: उन्होंने यह दिखाया कि संघर्ष केवल शस्त्रों से नहीं, बल्कि विचारों, साहस और निर्णायक कदमों से भी होता है. विधान सभा में बम फेंकना हिंसा का प्रदर्शन नहीं, बल्कि एक वैचारिक विस्फोट था.

 * पीढ़ी का प्रतीक: उनका जीवन उस पीढ़ी का प्रतीक है जिसने आजादी के लिए अपने सपने, जीवन और भविष्य तक को बलिदान कर दिया. उन्होंने निस्वार्थ भाव से देश के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया.

बटुकेश्वर दत्त की विरासत

बटुकेश्वर दत्त की विरासत आज भी हमें प्रेरित करती है:

 * राजनीतिक चेतना के प्रतीक: संसद में बम फेंकने का उनका उद्देश्य जनता को जागरूक करना था, ताकि वे ब्रिटिश सरकार के दमनकारी कानूनों के खिलाफ आवाज उठा सकें. यह एक मौन जनता को जगाने का प्रयास था.

 * युवा प्रेरणा स्रोत: आज के युवा बटुकेश्वर दत्त के विचारों से प्रेरणा ले सकते हैं—उनकी निडरता, साहस और सामाजिक बदलाव की भावना से. उनका जीवन हमें सिखाता है कि अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना कितना महत्वपूर्ण है.

 * क्रांतिकारी नायक: उन्होंने यह साबित किया कि एक महान विचारधारा और दृढ़ संकल्प के लिए जीवन की आहुति भी छोटी बात है. वे एक ऐसे नायक थे जिन्होंने अपने आदर्शों के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया.

उपेक्षा का प्रश्न

यह भारतीय इतिहास की एक दुखद विडंबना है कि जिस देश के लिए बटुकेश्वर दत्त ने अपनी जवानी जेल में बिताई और अमानवीय यातनाएं सहीं, उस स्वतंत्र देश ने उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया. उनके नाम पर न तो पर्याप्त संस्थान बने, न ही सरकारी स्तर पर उनकी स्मृति को समुचित स्थान मिला. उनकी उपेक्षा एक ऐसे प्रश्न को जन्म देती है कि क्या हम अपने वास्तविक नायकों को पर्याप्त रूप से याद रखते हैं और उन्हें सम्मान देते हैं.

उपसंहार

बटुकेश्वर दत्त केवल एक क्रांतिकारी नहीं, बल्कि एक जीवित विचारधारा थे. उनका साहस, उनकी साधना और उनका संकल्प आने वाली पीढ़ियों के लिए एक अमूल्य धरोहर हैं. आज आवश्यकता है कि उनके विचारों, उनकी निडरता और उनके बलिदान को विद्यालयों, विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक जीवन में समुचित सम्मान दिया जाए. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी कहानी को बार-बार सुनाया जाए, ताकि युवा पीढ़ी उनके आदर्शों से प्रेरणा ले सके और देश के प्रति अपने कर्तव्यों को समझ सके.

"जो आग भगत सिंह ने जलाई थी, उसी चिंगारी को संसद में बटुकेश्वर दत्त ने विस्फोट की तरह जगा दिया. वह धमाका आज भी इतिहास की गूंज में जिंदा है."

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