गांधीबुरी: मातंगिनी हाजरा — स्वतंत्रता की मशाल थामने वाली वृद्धा वीरांगना(18 अक्टूबर 1869- 29 सितंबर 1982)
भारत के स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास अनगिनत बलिदानों की गाथा है, जिनमें वीरांगना मातंगिनी हाजरा (18 अक्टूबर 1869– 29 सितंबर 1942) का नाम विशेष आदर के साथ लिया जाता है। वह केवल एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं, बल्कि त्याग, साहस और मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम की जीवित प्रतिमा थीं, जिन्हें बंगाल की जनता ने स्नेह से "गांधीबुरी" (बूढ़ी गांधी) कहा।
साधारण जीवन, असाधारण संकल्प
मातंगिनी हाजरा का जन्म 19 अक्टूबर 1869 को बंगाल के मिदनापुर जिले के तमलुक के पास होगला गाँव में एक अत्यंत साधारण और गरीब परिवार में हुआ था। पिता त्रैलोक्यनाथ मौलिक की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी, जिसके कारण उन्हें शिक्षा का अवसर नहीं मिला। कम उम्र में ही उनका विवाह एक वृद्ध व्यक्ति त्रिलोचन हाजरा से हुआ, जिनके निधन के बाद वे शीघ्र ही विधवा हो गईं। गरीबी और अकेलीपन के बावजूद, उन्होंने समाज सेवा और राष्ट्र सेवा को अपना जीवन लक्ष्य बनाया।
सत्याग्रह से क्रांति तक का सफर
मातंगिनी हाजरा महात्मा गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों से गहराई से प्रभावित हुईं। उन्होंने 1930 में नमक सत्याग्रह में सक्रिय भाग लिया और कई बार ब्रिटिश जेलों की यातनाएं सही। 1932 में जब सविनय अवज्ञा आंदोलन अपनी पराकाष्ठा पर था, तब लगभग साठ वर्ष की आयु में भी उन्होंने जुलूसों का नेतृत्व किया। उनकी ऊर्जा और देश के प्रति समर्पण युवाओं को भी प्रेरित करता था। उम्र की बाधा को उन्होंने कभी अपने रास्ते में नहीं आने दिया।
अमर बलिदान: तामलुक की वीरगति
उनके जीवन का सर्वोच्च क्षण 1942 के 'भारत छोड़ो आंदोलन' के दौरान आया। देशव्यापी संघर्ष की इस लहर में, 73 वर्षीय मातंगिनी हाजरा सबसे आगे थीं।
29 सितंबर 1942 को, उन्होंने तमलुक में 6000 से अधिक स्वतंत्रता सेनानियों के एक विशाल जुलूस का नेतृत्व किया। उनका एक मात्र उद्देश्य था – स्थानीय तामलुक थाना पर ब्रिटिश यूनियन जैक हटाकर भारत का तिरंगा फहराना।
जब जुलूस थाने के करीब पहुँचा, तो अंग्रेज़ सैनिकों ने भीड़ को रोकने के लिए अंधाधुंध गोलियां चलानी शुरू कर दीं। गोलियों की बौछार से भी मातंगिनी हाजरा नहीं रुकीं। उन्हें पहली गोली लगी, लेकिन उन्होंने अपने हाथों में पकड़ा तिरंगा गिरने नहीं दिया। दूसरी गोली लगने पर भी वे लंगड़ाती रहीं। अपने शरीर में तीनों गोलियां समा जाने के बावजूद, उन्होंने अंतिम साँस तक तिरंगे को अपने हाथों में थामे रखा और “वंदे मातरम्! भारत माता की जय!” का उद्घोष किया। वे तिरंगे को अपनी बाहों में लिए वहीं वीरगति को प्राप्त हुईं।
शहादत का राष्ट्रीय महत्व
मातंगिनी हाजरा की शहादत ने बंगाल में एक नई क्रांति की ज्वाला प्रज्वलित कर दी। उनकी मृत्यु के उपरांत, तामलुक के लोगों ने ब्रिटिश शासन को ठुकरा कर अपनी "तामलुक राष्ट्रीय सरकार" की स्थापना की।
मातंगिनी हाजरा भारत की पहली ऐसी वृद्धा महिला बनीं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाई और केवल झंडा फहराने के प्रयास में अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। उन्होंने सिद्ध कर दिया कि देशभक्ति और साहस पर आयु का कोई बंधन नहीं होता।
अमर स्मृति और सम्मान
आज भी, कोलकाता में उनकी प्रतिमा हाथ में तिरंगा लिए हुए स्थापित है, जो हर भारतीय को प्रेरणा देती है। भारतीय डाक विभाग ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया है, और पश्चिम बंगाल सरकार ने उनके नाम पर कई शैक्षणिक संस्थान और सड़कें समर्पित की हैं। वह हमेशा वीरांगना मातंगिनी हाजरा के रूप में स्मृत हैं।
निष्कर्ष
मातंगिनी हाजरा का जीवन एक ज्वलंत संदेश है: देशप्रेम किसी युग या उम्र का नहीं, यह हर उस आत्मा का गुण है जो स्वतंत्रता को अपनी साँसों में बसाए रखती है। गरीबी, कम उम्र में विधवा होना और वृद्धावस्था—कोई भी बाधा उन्हें उनके राष्ट्रीय कर्तव्य से विचलित नहीं कर सकी। उनका बलिदान न केवल बंगाल के लिए, बल्कि समूचे भारत के लिए स्वतंत्रता के इतिहास का एक अमर और प्रेरणादायक अध्याय है।
“मातंगिनी हाजरा” – वह वृद्धा जो तिरंगे के लिए जी और उसी को थामे वीरगति को प्राप्त हुई।
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