श्री गुरु रामदास जी: सेवा, भक्ति और अमृतसर के संस्थापक(24 सितंबर 1534 - 1 सितंबर 1581)
श्री गुरु रामदास जी (Guru Ram Das Ji) सिखों के चौथे गुरु थे। उनका जीवन सेवा, विनम्रता, और निस्वार्थ भक्ति का एक उज्जवल उदाहरण है, जिसने सिख धर्म को एक संगठित और स्थायी केंद्र प्रदान किया। उन्हें विशेष रूप से सिखों के सबसे पवित्र शहर अमृतसर की स्थापना के लिए याद किया जाता है।
प्रारंभिक जीवन और गुरगद्दी
गुरु रामदास जी का जन्म 24 सितंबर 1534 को चूना मंडी, लाहौर (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था। उनके बचपन का नाम भाई जेठा था। उनके माता-पिता, बाबा हरिदास जी और माता दया कौर जी, बहुत ही गरीब थे। सात वर्ष की छोटी उम्र में ही माता-पिता के स्वर्गवास हो जाने के कारण, उनका पालन-पोषण उनकी नानी ने किया। अपनी आजीविका के लिए वह उबले हुए चने बेचते थे।
भाई जेठा जी ने तीसरे सिख गुरु, गुरु अमरदास जी के लिए निस्वार्थ सेवा और गहरी भक्ति दिखाई। उनकी सेवा भावना और समर्पण से प्रभावित होकर, गुरु अमरदास जी ने अपनी पुत्री बीबी भानी का विवाह उनसे किया। 1 सितंबर 1574 को, गुरु अमरदास जी ने भाई जेठा जी को गुरगद्दी सौंपते हुए उन्हें गुरु रामदास का नाम दिया। इस प्रकार, उन्होंने गुरु की परंपरा को आगे बढ़ाया।
सबसे बड़ा योगदान: अमृतसर की स्थापना
गुरु रामदास जी का सबसे महत्वपूर्ण योगदान अमृतसर शहर की नींव रखना है, जो आज सिख धर्म का आध्यात्मिक और सांस्कृतिक केंद्र है।
रामदासपुर की स्थापना: गुरु रामदास जी ने 1574 ईस्वी में एक स्थान पर डेरा डाला, जो पहले घने जंगलों और झीलों से ढका हुआ था। उन्होंने यहाँ एक नया शहर बसाने का काम शुरू किया और इसे चक्क रामदासपुर या गुरु का चक्क नाम दिया। बाद में इसे रामदासपुर कहा गया।
अमृत सरोवर: उन्होंने यहाँ एक पवित्र सरोवर 'अमृत सरोवर' (अमृत का तालाब) खुदवाना शुरू किया। इस सरोवर के नाम पर ही इस शहर का नाम अंततः अमृतसर पड़ा। माना जाता है कि गुरु जी ने विभिन्न व्यापारों से जुड़े 52 व्यापारियों को इस स्थान पर बसने और व्यापार शुरू करने के लिए आमंत्रित किया, जिससे यह शहर जल्द ही व्यापार का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया।
हरमंदिर साहिब की नींव: सरोवर के पूरा होने के बाद, उनके उत्तराधिकारी गुरु अर्जन देव जी ने सरोवर के बीच में श्री हरमंदिर साहिब (स्वर्ण मंदिर) की स्थापना की।
आध्यात्मिक और सामाजिक कार्य
गुरु रामदास जी का आध्यात्मिक और सामाजिक योगदान अतुलनीय है:
वाणी: उनकी रचनाएँ, जिनमें लगभग 635 भजन शामिल हैं, सिखों के पवित्र ग्रंथ श्री गुरु ग्रंथ साहिब में 30 रागों में संकलित हैं। उनकी वाणी सेवा, भक्ति और गुरु के प्रति समर्पण पर केंद्रित है।
मस्सलंद प्रथा: उन्होंने मस्सलंद प्रथा को औपचारिक रूप दिया। इसके तहत, विभिन्न क्षेत्रों में धर्मप्रचारकों (मस्सलंदों) को नियुक्त किया गया, जो सिख धर्म के सिद्धांतों का प्रचार करते थे और स्थानीय सिख समुदायों से दान (दसवंद) एकत्र कर गुरु तक पहुंचाते थे। इस व्यवस्था ने सिख धर्म के विकास और वित्तीय सुदृढ़ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
आनंद कारज: उन्होंने सिख विवाह समारोह के लिए 'लवां' (चार फेरे) की रचना की, जिसे आज आनंद कारज के नाम से जाना जाता है। इस रचना ने सिख विवाह पद्धति को हिंदू कर्मकांडों से अलग एक स्वतंत्र पहचान दी।
वंशानुगत गुरुगद्दी: गुरु रामदास जी ने अपने सबसे छोटे पुत्र गुरु अर्जन देव जी को अपना उत्तराधिकारी चुना, जिससे सिख गुरुओं का पद वंश-परंपरा में चलने लगा।
गुरु रामदास जी 1 सितंबर 1581 को गोइंदवाल में ज्योति-जोत समा गए। उनकी शिक्षाएँ और अमृतसर की स्थापना आज भी सिख धर्म की नींव और आत्मा बने हुए हैं।

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