सिख धर्म के तीसरे गुरु अमरदास जी: सेवा, समानता और सामाजिक सुधार के अग्रदूत( 5 अप्रैल 1479- 1 सितंबर 1574)
श्री गुरु अमरदास जी (Guru Amar Das Ji) सिख धर्म के तीसरे गुरु थे, जिन्होंने अपनी असाधारण सेवा भावना, दृढ़ संकल्प और क्रांतिकारी सामाजिक सुधारों से सिख धर्म को एक मजबूत और व्यापक आधार प्रदान किया। उनका जीवन यह सिखाता है कि निस्वार्थ सेवा और भक्ति उम्र या जाति की सीमाओं से परे होती है।
प्रारंभिक जीवन और गुरु की सेवा
गुरु अमरदास जी का जन्म 5 अप्रैल 1479 को पंजाब के बासरके गाँव में हुआ था। वह खत्री जाति के थे। अपने जीवन के शुरुआती 60 वर्षों तक, वह एक धार्मिक व्यक्ति थे जो वैष्णव मत का पालन करते थे और 21 बार पैदल हरिद्वार की यात्रा कर चुके थे। लगभग 61 वर्ष की आयु में, उन्होंने अपनी पुत्रवधू से गुरु नानक देव जी द्वारा रचित एक 'शबद' (भजन) सुना। उस शबद से वे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत दूसरे सिख गुरु, गुरु अंगद देव जी का पता पूछा और उनके चरणों में आ गए।: गुरु अमरदास जी ने अपने से 25 वर्ष छोटे गुरु अंगद देव जी की सेवा में खुद को पूरी तरह समर्पित कर दिया। वह लगातार 12 वर्षों तक खडूर साहिब में रहे, जहाँ वे प्रतिदिन भोर से पहले तीन कोस दूर व्यास नदी से गागर में जल लाते थे, जिससे गुरु अंगद देव जी स्नान करते थे।
गुरगद्दी की प्राप्ति: उनकी अटूट सेवा, विनम्रता और समर्पण से प्रभावित होकर, गुरु अंगद देव जी ने उन्हें अपने पुत्रों के बजाय, 1552 ईस्वी में उन्हें गुरुगद्दी सौंपी और सिखों का तीसरा गुरु घोषित किया।
प्रमुख योगदान और सुधार
गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को संगठित करने और इसे एक स्वतंत्र सामाजिक पहचान देने के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए:
लंगर और पंगत की प्रथा (समानता का प्रतीक)
गुरु अमरदास जी ने गुरु नानक देव जी द्वारा शुरू की गई लंगर (सामुदायिक रसोई) की प्रथा को संस्थागत रूप दिया और इसे अनिवार्य बना दिया।
पंगत से पहले संगत: उन्होंने "पहले पंगत, फिर संगत" का सिद्धांत स्थापित किया। इसका अर्थ था कि गुरु के दर्शन करने से पहले, सभी को लंगर में एक ही पंक्ति (पंगत) में बैठकर भोजन करना होगा।
भेदभाव का अंत: यह प्रथा जाति, धर्म, वर्ग या ऊंच-नीच के सभी भेदभावों को तोड़ने के लिए एक क्रांतिकारी सामाजिक हथियार साबित हुई। यह समानता की इतनी बड़ी मिसाल थी कि जब मुगल बादशाह अकबर गुरु जी से मिलने गोइंदवाल साहिब आए, तो उन्होंने भी जमीन पर बैठकर ही अन्य लोगों के साथ लंगर छका था।
सामाजिक सुधार
गुरु अमरदास जी एक महान समाज सुधारक थे, जिन्होंने महिलाओं के उत्थान और सामाजिक बुराइयों को दूर करने पर जोर दिया:
सती और पर्दा प्रथा का विरोध: उन्होंने सती प्रथा (पति की मृत्यु पर पत्नी का जल जाना) और पर्दा प्रथा (स्त्रियों द्वारा चेहरा ढकना) का दृढ़ता से विरोध किया। उन्होंने सिखों के बीच इन प्रथाओं को हतोत्साहित किया और महिलाओं को बिना मुंह ढके संगत में आने के लिए प्रेरित किया, जो उस समय एक बड़ा सामाजिक परिवर्तन था।
विवाह संस्कार: उन्होंने सादगीपूर्ण विवाह पर जोर दिया।
धर्म का विस्तार
सिख धर्म को व्यवस्थित करने के लिए उन्होंने संगठनात्मक ढांचा तैयार किया:
मंजी प्रथा: उन्होंने धर्म प्रचार के लिए 22 मंजी (धर्म प्रचार केंद्र) स्थापित किए। हर मंजी का नेतृत्व एक समर्पित सिख को सौंपा गया, जो स्थानीय स्तर पर गुरु की शिक्षाओं का प्रचार करता था।
बावली साहिब: उन्होंने गोइंदवाल साहिब में 84 सीढ़ियों वाली बावली (कुआँ) का निर्माण कराया। ऐसी मान्यता है कि इस बावली में श्रद्धापूर्वक स्नान करने से 84 लाख योनियों के आवागमन से मुक्ति मिल सकती है।
वाणी का योगदान
उन्होंने लगभग 907 शबद और स्लोक रचे, जो श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना 'आनंद साहिब' है, जिसे सिख घरों और गुरुद्वारों में हर धार्मिक अवसर पर पढ़ा जाता है।
1 सितंबर 1574 को 95 वर्ष की आयु में गुरु अमरदास जी गोइंदवाल साहिब में ज्योति-जोत समा गए। उन्होंने अपने दामाद, भाई जेठा जी (जो बाद में गुरु रामदास जी बने) को अपना उत्तराधिकारी बनाया।

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