श्री कृष्ण सिंह ('श्री बाबू'): आधुनिक बिहार के निर्माता और जननायक मुख्यमंत्री (21 अक्टूबर 1887 – 31 जनवरी 1961)


 श्री कृष्ण सिंह ('श्री बाबू'): आधुनिक बिहार के निर्माता और जननायक मुख्यमंत्री  (21 अक्टूबर 1887 – 31 जनवरी 1961)
परिचय: बिहार की आत्मा में बसा नाम 

श्री कृष्ण सिंह (21 अक्टूबर 1887 – 31 जनवरी 1961), जिन्हें प्यार से "श्री बाबू" पुकारा जाता था, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक कर्मठ सेनानी और स्वतंत्र बिहार राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री थे। उनका जीवन सत्य, सादगी, त्याग और जनसेवा का अद्भुत संगम था। 1946 से 1961 तक, भारत के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री पद पर आसीन रहने वाले नेताओं में से एक के रूप में, उन्होंने आधुनिक बिहार की औद्योगिक, शैक्षिक और कृषिगत नींव रखी। वह केवल एक राजनीतिक प्रशासक नहीं थे, बल्कि एक दूरदर्शी समाज सुधारक और जननायक थे, जिन्होंने राजनीति को 'सत्ता' नहीं, बल्कि 'सेवा' का पर्याय सिद्ध किया।

प्रारंभिक जीवन, राष्ट्रवाद की भावना

श्री कृष्ण सिंह का जन्म 21 अक्टूबर 1887 को नालंदा जिले (तत्कालीन मुंगेर जिला) के मुरारपुर, नवादा में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता, रेडो सिंह, एक धर्मपरायण व्यक्ति थे, जिन्होंने उनमें नैतिकता और न्यायप्रियता के संस्कार डाले।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा नवादा में पूरी की और फिर पटना कॉलेज से उच्च शिक्षा प्राप्त की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रभक्ति और सामाजिक न्याय के भाव से ओत-प्रोत थे। उनकी गहन बौद्धिक क्षमता और तार्किक सोच ने उन्हें विधि (Law) के अध्ययन की ओर प्रेरित किया।

स्वतंत्रता संग्राम में एक 'कर्मयोगी' की भूमिका

श्री कृष्ण सिंह का राजनीतिक जीवन संघर्ष, बलिदान और अटूट राष्ट्रीय निष्ठा से भरा हुआ है।
 
किसान आंदोलन (1908): वकालत शुरू करने से पहले ही, उन्होंने बेगूसराय किसान आंदोलन में भाग लिया, जहाँ उन्होंने किसानों की समस्याओं को समझा और उनके प्रति अपनी प्रतिबद्धता दर्शायी।

 असहयोग आंदोलन (1921): महात्मा गांधी के आह्वान पर, उन्होंने अपनी सफल वकालत छोड़ दी और पूरी तरह से राष्ट्रीय आंदोलन को समर्पित हो गए।
 
नमक सत्याग्रह (1930): इस आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा।
 
जेल जीवन: उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में कई बार ब्रिटिश हुकूमत द्वारा गिरफ्तारी दी और कुल आठ वर्ष से अधिक का समय जेलों में बिताया।
 
केंद्रीय नेतृत्व से जुड़ाव: उनकी निष्ठा, अनुशासन और जनता से सीधे जुड़ाव ने उन्हें जल्दी ही महात्मा गांधी और पंडित नेहरू के सबसे विश्वसनीय और निकट सहयोगियों में शामिल कर दिया।
वे अपनी स्पष्टवादिता और साहस के लिए जाने जाते थे। उन्हें बिहार की राजनीति में 'बिहार केसरी' की उपाधि से विभूषित किया गया था।

बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री: निर्माण का स्वर्णिम काल

भारत की आजादी से पूर्व, 1937 में जब प्रांतीय स्वायत्तता मिली, तब भी वह बिहार के प्रथम प्रधानमंत्री (उस समय मुख्यमंत्री को प्रधानमंत्री कहा जाता था) बने। स्वतंत्र भारत में, 1946 से 1961 में अपने निधन तक, वे लगातार बिहार के मुख्यमंत्री रहे। उनके 15 वर्ष से अधिक के कार्यकाल को 'आधुनिक बिहार के निर्माण का स्वर्णिम काल' माना जाता है।
उनका प्रशासन ईमानदारी, दक्षता और सामाजिक न्याय पर केंद्रित था।

 औद्योगिक क्रांति के सूत्रधार

श्री बाबू की सबसे बड़ी देन बिहार में भारी उद्योगों की नींव रखना था। उन्होंने राज्य के तीव्र औद्योगिक विकास के लिए अथक प्रयास किए:

 बरौनी रिफाइनरी (तेल शोधक कारखाना) की स्थापना।

हिंदुस्तान स्टील प्लांट, बोकारो (तत्कालीन बिहार में)।
 
सीमेंट, उर्वरक और बिजली संयंत्रों की स्थापना को प्रोत्साहन।
 
झारखंड क्षेत्र (तत्कालीन बिहार) के जमशेदपुर और धनबाद जैसे औद्योगिक केंद्रों के विकास में उनका निर्णायक योगदान रहा।

शिक्षा का व्यापक प्रसार

शिक्षा के महत्व को समझते हुए उन्होंने इसे जन-जन तक पहुँचाने के लिए व्यापक कार्य किए:

 पटना विश्वविद्यालय और रांची विश्वविद्यालय (अब झारखंड) का विकास और पुनर्गठन।
 
तकनीकी और उच्च शिक्षा के लिए कई संस्थानों की नींव रखी, जिनमें बिहार इंजीनियरिंग कॉलेज (अब NIT पटना) का पुनर्गठन और विभिन्न मेडिकल कॉलेजों की स्थापना प्रमुख है।

 कृषि और सिंचाई में आत्मनिर्भरता

बिहार की कृषि अर्थव्यवस्था को मजबूती देने के लिए उन्होंने सिंचाई के साधनों पर ध्यान केंद्रित किया:
 
सोन नहर परियोजना का आधुनिकीकरण।
 
गंडक सिंचाई योजना जैसी वृहद परियोजनाओं पर कार्य शुरू किया।

 जमींदारी प्रथा का उन्मूलन उनके प्रमुख सामाजिक-आर्थिक फैसलों में से एक था, जिसने किसानों को शोषण से मुक्ति दिलाई।

 सामाजिक न्याय के अग्रदूत

श्री कृष्ण सिंह जातिवाद और अस्पृश्यता के कट्टर विरोधी थे। महात्मा गांधी के 'हरिजन उद्धार' कार्यक्रम से प्रेरित होकर उन्होंने बिहार में अस्पृश्यता को समाप्त करने और सामाजिक समरसता लाने के लिए ठोस कदम उठाए।
 
 उन्होंने छुआछूत के खिलाफ समाज को जागरूक किया और मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश के लिए अभियान चलाए।
 
उनके नेतृत्व में ही बिहार में हरिजन उद्धार कार्यक्रम सफलतापूर्वक प्रारंभ किया गया।

व्यक्तिगत संबंध और राजनीतिक जोड़ी

श्री कृष्ण सिंह का व्यक्तित्व सादगी, ईमानदारी और अदम्य दृढ़ता का प्रतीक था। वे निर्णय लेने में अत्यंत सक्षम और प्रशासनिक रूप से दूरदर्शी थे।
उनके राजनीतिक जीवन की सबसे यादगार बात उनके निकट सहयोगी डॉ. अनुग्रह नारायण सिंह के साथ उनकी जोड़ी थी। यह जोड़ी "श्री बाबू – अनुग्रह बाबू" के नाम से प्रसिद्ध हुई। श्री बाबू जहाँ मुख्यमंत्री के रूप में प्रशासनिक और राजनीतिक नेतृत्व प्रदान करते थे, वहीं अनुग्रह बाबू वित्त और श्रम जैसे महत्वपूर्ण विभाग संभालते थे। इस साझेदारी ने एक सुदृढ़ प्रशासनिक और राजनीतिक नींव रखी, जिसने आधुनिक बिहार के सामाजिक और आर्थिक उत्थान में केंद्रीय भूमिका निभाई।

सम्मान और शाश्वत विरासत

श्री कृष्ण सिंह का निधन 31 जनवरी 1961 को हुआ, जिससे बिहार की राजनीति में एक युग का अंत हो गया।
उन्हें आज भी "बिहार के आधुनिक निर्माता" और "जननायक मुख्यमंत्री" के रूप में याद किया जाता है।
उनकी स्मृति में बिहार की राजधानी पटना में "श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल" और "श्रीकृष्ण विज्ञान केन्द्र" स्थापित किए गए हैं। इसके अतिरिक्त, राज्य भर में अनेक शैक्षणिक संस्थानों, मार्गों और उद्यानों का नामकरण उनके सम्मान में किया गया है, जो उनकी शाश्वत विरासत को दर्शाते हैं।

निष्कर्ष

श्री कृष्ण सिंह भारतीय राजनीति के उन विरले नेताओं में से थे जिन्होंने सत्ता को सेवा का माध्यम बनाकर महात्मा गांधी के आदर्शों को जमीनी स्तर पर उतारा। उन्होंने बिहार को एक जागरूक, शिक्षित, और औद्योगिक विकास की राह पर अग्रसर राज्य के रूप में स्थापित किया।
उनका जीवन और उनकी नीतियाँ भारतीय लोकतंत्र की नींव को सुदृढ़ करने में सदैव प्रेरणास्रोत रहेंगे। श्री बाबू केवल बिहार के नहीं, बल्कि भारत के जनमानस के हृदय में बसने वाले एक सच्चे जननायक थे, जिनकी कर्मनिष्ठा और सादगी आज भी सार्वजनिक जीवन के लिए एक उच्चतम मापदंड है।
"श्री बाबू केवल बिहार के नहीं, बल्कि भारत के जनमानस के मुख्यमंत्री थे।"


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