क्रांतिकारी अशफाकुल्ला ख़ाँ: आज़ादी के अमर सिपाही और हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक(22 अक्टूबर 1900 - 19 दिसंबर 1927)
भूमिका
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास उन असंख्य अमर वीरों के रक्त से लिखा गया है जिन्होंने मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए सहर्ष अपने प्राणों की आहुति दे दी। इन्हीं तेजस्वी नक्षत्रों में एक ऐसा नाम है जो केवल क्रांति का पर्याय नहीं, बल्कि भारत की गंगा-जमुनी संस्कृति, अटूट भाईचारे और निस्वार्थ देशभक्ति का अनुपम उदाहरण है—अशफाकुल्ला ख़ाँ। उनका जीवन यह सिद्ध करता है कि भारत की आज़ादी की लड़ाई किसी एक धर्म की नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र की थी, जहाँ हर भारतीय सिपाही सबसे पहले 'देशभक्त' था।
प्रारंभिक जीवन और जन्म: देशभक्ति का बीजारोपण
अमर बलिदानी अशफाकुल्ला ख़ाँ का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के ऐतिहासिक नगर शाहजहाँपुर में हुआ था। उनके पिता श्री शफीकुल्ला ख़ाँ और माता श्रीमती मज़रून्निसा बेग़म थीं। उनका परिवार यद्यपि साधारण था, पर संस्कारों और शिक्षा से परिपूर्ण था। बचपन से ही अशफाकुल्ला ख़ाँ में मातृभूमि के प्रति अगाध प्रेम और देशभक्ति की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे अपनी तीव्र बुद्धि, सौम्य स्वभाव और मित्रों के प्रति अगाध निष्ठा के लिए जाने जाते थे।
क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत: सशस्त्र क्रांति की शपथ
सन् 1920 के दशक में जब पूरे देश में महात्मा गांधी के नेतृत्व में असहयोग आंदोलन ज़ोरों पर था, तब युवा अशफाकुल्ला ख़ाँ भी इस अहिंसात्मक मार्ग से प्रभावित हुए। किंतु, फरवरी 1922 में हुए चौरी-चौरा कांड के बाद गांधीजी द्वारा अचानक आंदोलन वापस ले लेने से अशफाकुल्ला सहित देश के अनेक उत्साही युवाओं में गहरी निराशा हुई।
इस निराशा ने उन्हें एक नया मार्ग चुनने के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ठान लिया कि अब वे सशस्त्र क्रांति के माध्यम से ब्रिटिश हुकूमत से आज़ादी छीन लेंगे। यही वह मोड़ था जिसने उन्हें हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन (HRA) के सक्रिय सदस्य के रूप में स्थापित किया।
हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक: बिस्मिल-अशफाक़ की अमर जोड़ी
अशफाकुल्ला ख़ाँ का सबसे बड़ा योगदान उनकी क्रांति से भी बढ़कर, हिंदू-मुस्लिम एकता को दी गई मिसाल है। वे महान क्रांतिकारी राम प्रसाद ‘बिस्मिल’ के घनिष्ठ मित्र, सहयोगी और एक तरह से हमसफ़र थे। दोनों की मित्रता इतनी गहरी और अटूट थी कि लोग उन्हें “राम-और-अशफाक़ की जोड़ी” कहकर पुकारते थे।
उनकी मित्रता यह सिद्ध करती है कि आज़ादी की लड़ाई में धर्म कभी बाधा नहीं बना; राष्ट्र सर्वोपरि था। उनकी यह जोड़ी देश के लिए एकजुट होकर लड़ने की प्रेरणा स्रोत बन गई।
काकोरी कांड (9 अगस्त 1925): ब्रिटिश नींव को हिलाने वाली घटना
अशफाकुल्ला ख़ाँ का नाम भारतीय इतिहास में विशेष रूप से काकोरी ट्रेन एक्शन (9 अगस्त 1925) से अमर हो गया। यह वह साहसी घटना थी जिसने ब्रिटिश सत्ता की जड़ें हिला दी थीं।
HRA के वीर क्रांतिकारियों—जिनमें राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्र लाहिड़ी, रोशन सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और अशफाकुल्ला ख़ाँ प्रमुख थे—ने मिलकर सरकारी खजाने से भरी ट्रेन को लूटने की योजना बनाई। इसका उद्देश्य क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करने के लिए धन जुटाना था। यह घटना उत्तर प्रदेश के काकोरी स्टेशन के पास हुई, इसलिए इसे 'काकोरी कांड' कहा गया।
इस घटना के बाद अंग्रेज़ सरकार ने दमनचक्र चलाया। कई क्रांतिकारी पकड़े गए। लंबे समय तक छिपने के बाद, दुर्भाग्यवश, अशफाकुल्ला ख़ाँ को भी दिल्ली में एक धोखेबाज दोस्त की गद्दारी के कारण गिरफ्तार कर लिया गया।
मुकदमा और अदम्य साहस: वफ़ादारी का गौरव
गिरफ्तारी के बाद अंग्रेज़ सरकार ने काकोरी कांड के अभियुक्तों पर ऐतिहासिक मुकदमा चलाया। जेल में अशफाकुल्ला ख़ाँ पर अमानवीय अत्याचार किए गए। उन्हें साथियों के खिलाफ गवाही देने के लिए भारी लालच दिया गया, यह कहा गया कि वे मुस्लिम होने के नाते इस हिंदू-संगठन को छोड़ दें, पर इस वीर सपूत ने अपने राष्ट्र और साथियों के साथ विश्वासघात करने से साफ इनकार कर दिया।
उन्होंने गर्व से न्यायालय में कहा था:
“मैंने अपने देश से वफ़ादारी की है, ग़द्दारी नहीं कर सकता।”
बलिदान: एक शांत और अटल संकल्प
लंबी सुनवाई और मुकदमे के बाद, अशफाकुल्ला ख़ाँ को फाँसी की सज़ा सुनाई गई। 19 दिसंबर 1927 को उन्हें फ़ैज़ाबाद जेल में फाँसी दे दी गई। यह वही दिन था जब उनके परम मित्र राम प्रसाद बिस्मिल को गोरखपुर जेल में फाँसी दी गई थी।
फाँसी से पूर्व, अशफाकुल्ला ख़ाँ ने पूरी शांति से कुरान शरीफ का पाठ किया और अपने अंतिम शब्दों में कहा:
“मैं अपने देश के लिए शहीद होने जा रहा हूँ। ईश्वर से यही दुआ है कि हिंदुस्तान जल्द आज़ाद हो।”
इस प्रकार, मात्र 27 वर्ष की अल्पायु में वे देश की वेदी पर बलि हो गए।
व्यक्तित्व और विरासत: सादगी, साहस और समन्वय
अशफाकुल्ला ख़ाँ सादगी, साहस और राष्ट्रीय एकता के जीवंत प्रतीक थे। उनका जीवन दर्शाता है कि सच्चे देशभक्त के लिए धर्म या जाति से बढ़कर केवल राष्ट्र होता है।
वह उर्दू के एक संवेदनशील कवि भी थे और अपनी रचनाओं में देशभक्ति की भावना भरते थे। हालाँकि महान गीत 'सरफ़रोशी की तमन्ना' मूल रूप से बिस्मिल अज़ीमाबादी द्वारा लिखा गया था, पर अशफाकुल्ला ख़ाँ और बिस्मिल दोनों इसे अक्सर गुनगुनाते थे, जिसने इसे क्रांति का गान बना दिया:
“सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है,
देखना है ज़ोर कितना बाज़ु-ए-क़ातिल में है।”
स्मृति और प्रेरणा: एक अमर संदेश
आज भी अशफाकुल्ला ख़ाँ का नाम भारत की एकता, अटूट साहस और महान बलिदान की छवि को जाग्रत करता है। उनके सम्मान में उत्तर प्रदेश के बरेली हवाई अड्डे का नाम “पंडित राम प्रसाद बिस्मिल-अशफाकुल्ला ख़ाँ एयरपोर्ट” रखा गया है।
उनका जीवन और बलिदान भारत की भावी पीढ़ियों के लिए एक शाश्वत संदेश है।
निष्कर्ष: भारतीयता सर्वोपरि
अशफाकुल्ला ख़ाँ केवल एक क्रांतिकारी नहीं थे, बल्कि वे भारतीय धर्मनिरपेक्षता, भाईचारे और सर्वोच्च बलिदान के प्रतीक स्तंभ थे। उनका जीवन यह सिखाता है कि सच्चा देशभक्त वह है जो अपने राष्ट्र को हर बंधन, हर पहचान से ऊपर रखे।
उनका बलिदान सदैव यह संदेश देता रहेगा:
“धर्म अलग हो सकता है, पर देश एक है;
और जब मातृभूमि की रक्षा की बात आती है,
तो हर इंसान केवल और केवल भारतीय होता है।”

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