बाबा आमटे: एक महान समाजसेवी
बाबा आमटे का नाम भारत के सबसे प्रसिद्ध समाजसेवकों में गिना जाता है। वे केवल एक सामाजिक कार्यकर्ता ही नहीं, बल्कि एक ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपना पूरा जीवन समाज के उपेक्षित और वंचित वर्गों की सेवा में समर्पित कर दिया। उनका असली नाम मुल्कराज संतोष आमटे था, लेकिन वे "बाबा आमटे" के नाम से प्रसिद्ध हुए।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
बाबा आमटे का जन्म 26 दिसंबर 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले में हुआ था। उनका परिवार संपन्न था, लेकिन बचपन से ही वे सामाजिक असमानता को देखकर विचलित हो जाते थे। उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई की और वकालत करने लगे।
कोढ़ियों (कुष्ठ रोगियों) की सेवा का संकल्प
बाबा आमटे का जीवन उस समय पूरी तरह बदल गया जब उन्होंने एक कुष्ठ रोगी को दर्द से तड़पते हुए देखा। समाज कुष्ठ रोगियों को हाशिए पर रखता था, लेकिन बाबा आमटे ने इस मानसिकता को बदलने का संकल्प लिया। उन्होंने खुद पर कुष्ठ रोग के कीटाणुओं का प्रयोग किया ताकि यह समझ सकें कि यह रोग कितना भयावह होता है। इसके बाद, उन्होंने कुष्ठ रोगियों के इलाज और पुनर्वास के लिए काम करना शुरू किया।
आनंदवन की स्थापना
1949 में, बाबा आमटे ने महाराष्ट्र में "आनंदवन" नामक एक आश्रम की स्थापना की, जो कुष्ठ रोगियों और विकलांग लोगों के लिए एक पुनर्वास केंद्र बन गया। आनंदवन केवल एक आश्रम नहीं, बल्कि एक आत्मनिर्भर समुदाय बन गया, जहाँ रहने वाले लोग खेती, कुटीर उद्योग और हस्तशिल्प के माध्यम से आत्मनिर्भर बनने लगे।
पर्यावरण और आदिवासी कल्याण के लिए कार्य
बाबा आमटे ने पर्यावरण संरक्षण, नर्मदा बचाओ आंदोलन और आदिवासी अधिकारों के लिए भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके बेटे डॉ. प्रकाश आमटे और बेटी-बहू मंदाकिनी आमटे भी उनके पदचिह्नों पर चलते हुए आदिवासी कल्याण के क्षेत्र में काम कर रहे हैं।
सम्मान और पुरस्कार
बाबा आमटे को उनके सामाजिक कार्यों के लिए कई प्रतिष्ठित पुरस्कार मिले, जिनमें प्रमुख हैं:
राष्ट्रपति पदक (1954)
रमन मैग्सेसे पुरस्कार (1985)
अहिंसा पुरस्कार (1999)
गांधी शांति पुरस्कार (2000)
भारत रत्न (मरणोपरांत प्रस्तावित)
निधन
बाबा आमटे का निधन 9 फरवरी 2008 को हुआ, लेकिन उनके विचार और कार्य आज भी लाखों लोगों को प्रेरित कर रहे हैं।
निष्कर्ष
बाबा आमटे का जीवन एक मिशन था—एक ऐसा मिशन जो वंचितों को मुख्यधारा में लाने और समाज में समानता स्थापित करने के लिए समर्पित था। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची सेवा केवल शब्दों से नहीं, बल्कि कर्मों से होती है। वे सही मायने में मानवता के सच्चे सेवक थे।
डॉ o संतोष आनन्द मिश्रा
डी o ए o वी पब्लिक स्कूल
मानपुर, गया, बिहार
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