गुरबख्श सिंह ढिल्लों: आज़ाद हिंद फौज के अमर सेनानी
गुरबख्श सिंह ढिल्लों भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक वीर योद्धा और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आज़ाद हिंद फौज (Indian National Army - INA) के महत्वपूर्ण सेनानियों में से एक थे। वे उन नायकों में शामिल थे जिन्होंने भारत को ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। उनका जीवन संघर्ष, साहस और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणादायक कहानी है, जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नया जोश भर दिया।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
गुरबख्श सिंह ढिल्लों का जन्म 18 मार्च 1914 को ब्रिटिश भारत के पंजाब प्रांत में हुआ था। उनका परिवार एक सैन्य पृष्ठभूमि से संबंधित था, जिससे उन्हें बचपन से ही सेना और राष्ट्रभक्ति की प्रेरणा मिली। उनकी प्रारंभिक शिक्षा पंजाब में हुई, जहां उन्होंने उच्च शिक्षा के लिए प्रवेश लिया।
उनके बचपन से ही उनमें राष्ट्रभक्ति की भावना प्रबल थी। वे उन युवाओं में से थे जिन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी। पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं को समझना शुरू कर दिया और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में रुचि लेने लगे।
ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती और द्वितीय विश्व युद्ध
गुरबख्श सिंह ढिल्लों ने अपने सैन्य करियर की शुरुआत ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती होकर की। उस समय भारतीय सैनिकों को ब्रिटिश सेना के अधीन रहकर सेवा देनी पड़ती थी। उन्होंने सैन्य प्रशिक्षण प्राप्त किया और जल्द ही एक कुशल सैनिक बन गए।
जब द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) शुरू हुआ, तो ब्रिटिश सेना ने उन्हें दक्षिण-पूर्व एशिया के युद्धक्षेत्र में जापानी सेना के खिलाफ भेज दिया। लेकिन इस दौरान एक बड़ा बदलाव आया।
1942 में जापानी सेना ने सिंगापुर पर कब्जा कर लिया और ब्रिटिश सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस हार के बाद हजारों भारतीय सैनिक जापानी सेना के कब्जे में आ गए। यह वही समय था जब नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय सैनिकों को एकत्र कर एक स्वतंत्र भारतीय सेना—"आज़ाद हिंद फौज"—की स्थापना की।
गुरबख्श सिंह ढिल्लों नेताजी के राष्ट्रवादी विचारों से प्रभावित हुए और उन्होंने ब्रिटिश सेना छोड़कर आज़ाद हिंद फौज में शामिल होने का निर्णय लिया।
आज़ाद हिंद फौज में भूमिका और संघर्ष
आज़ाद हिंद फौज का उद्देश्य भारत को ब्रिटिश शासन से मुक्त कराना था। इसमें भारतीय सैनिकों को संगठित किया गया और एक स्वतंत्र सेना के रूप में तैयार किया गया।
गुरबख्श सिंह ढिल्लों को आज़ाद हिंद फौज में लेफ्टिनेंट कर्नल का पद दिया गया। उन्होंने बर्मा (अब म्यांमार) में ब्रिटिश सेना के खिलाफ मोर्चा संभाला और अपनी रणनीति व साहस का परिचय दिया।
1944-45 का इंफाल और कोहिमा युद्ध
1944 में आज़ाद हिंद फौज ने जापानी सेना के सहयोग से भारत की पूर्वी सीमाओं पर हमला किया। इंफाल (मणिपुर) और कोहिमा (नागालैंड) में ब्रिटिश भारतीय सेना और आज़ाद हिंद फौज के बीच घमासान युद्ध हुआ।
गुरबख्श सिंह ढिल्लों इस अभियान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे। उन्होंने अपने सैनिकों का नेतृत्व किया और ब्रिटिश सेना के खिलाफ वीरता से लड़े। हालांकि, यह युद्ध ब्रिटिश सेना ने जीत लिया, लेकिन इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई ऊर्जा दी।
इस युद्ध ने यह स्पष्ट कर दिया कि भारतीय सैनिक अब स्वतंत्रता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। इस संघर्ष ने भारतीय जनता में राष्ट्रवाद की भावना को और अधिक मजबूत कर दिया।
रेड फोर्ट ट्रायल (लाल किले का मुकदमा) और राष्ट्रव्यापी विद्रोह
द्वितीय विश्व युद्ध के अंत में जब जापान ने आत्मसमर्पण किया, तो आज़ाद हिंद फौज भी कमजोर हो गई। ब्रिटिश सरकार ने फौज के कई सैनिकों को गिरफ्तार कर लिया, जिनमें गुरबख्श सिंह ढिल्लों भी शामिल थे।
ब्रिटिश सरकार ने 1945 में दिल्ली के लाल किले में "राजद्रोह" और "युद्ध अपराधों" का मुकदमा चलाने का फैसला किया। यह मुकदमा इतिहास में "रेड फोर्ट ट्रायल" के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इस मुकदमे में तीन प्रमुख भारतीय सैन्य अधिकारियों पर मुकदमा चलाया गया:
- गुरबख्श सिंह ढिल्लों
- शहनवाज खान
- प्रेम सहगल
ब्रिटिश सरकार ने इन तीनों पर अंग्रेज़ों के खिलाफ युद्ध लड़ने का आरोप लगाया और उन्हें फांसी की सज़ा सुनाने की तैयारी की। लेकिन इस फैसले के खिलाफ पूरे भारत में जबरदस्त जनआंदोलन शुरू हो गया।
"लाल किला मुकदमा" भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ सबसे बड़े जनविद्रोहों में से एक बन गया। कांग्रेस, मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा सहित सभी बड़े दलों ने इस फैसले का विरोध किया। भारतीय जनता सड़कों पर उतर आई और ब्रिटिश सरकार को जबरदस्त दबाव का सामना करना पड़ा।
अंततः जनता और कांग्रेस नेताओं के दबाव के चलते ब्रिटिश सरकार को गुरबख्श सिंह ढिल्लों, शहनवाज खान और प्रेम सहगल की सज़ा रद्द करनी पड़ी और उन्हें मुक्त कर दिया गया।
भारत की आज़ादी और बाद का जीवन
1947 में भारत को स्वतंत्रता मिली, लेकिन गुरबख्श सिंह ढिल्लों भारतीय राजनीति में सक्रिय नहीं हुए। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की विरासत को आगे बढ़ाने और भारतीय सेना के गौरव को बढ़ाने के लिए काम किया।
वे कई सामाजिक कार्यों में भी संलग्न रहे और राष्ट्रवादी विचारधारा को मजबूत करने में योगदान दिया। उन्हें स्वतंत्रता संग्राम के प्रति उनकी सेवाओं के लिए कई राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
6 फरवरी 2006 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी वीरता और योगदान को आज भी याद किया जाता है।
गुरबख्श सिंह ढिल्लों की विरासत और प्रेरणा
- राष्ट्रभक्ति और बलिदान की मिसाल: उन्होंने नेताजी के नेतृत्व में भारत की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया और अपने प्राणों की परवाह नहीं की।
- युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा: उनका जीवन युवाओं के लिए प्रेरणास्रोत है कि कैसे कर्तव्यनिष्ठा और साहस से अपने देश के लिए कुछ किया जा सकता है।
- भारतीय सेना के इतिहास में महत्वपूर्ण नाम: वे उन वीरों में शामिल हैं जिन्होंने भारतीय सेना को एक नई पहचान दी।
- राष्ट्रीय एकता का प्रतीक: उनके योगदान ने यह सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्रता संग्राम न केवल हिंदुओं या मुसलमानों का था, बल्कि हर भारतीय का था।
निष्कर्ष
गुरबख्श सिंह ढिल्लों सिर्फ एक सैनिक नहीं थे, बल्कि वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर नायक थे। उनका बलिदान और त्याग भारत के इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में लिखा गया है।
उनकी वीरता, संघर्ष और राष्ट्रप्रेम की कहानी आने वाली पीढ़ियों के लिए हमेशा प्रेरणा बनी रहेगी। वे उन अनगिनत नायकों में से एक हैं, जिनकी वजह से भारत को स्वतंत्रता मिली। उनका जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्ची देशभक्ति सिर्फ शब्दों से नहीं, बल्कि कर्मों से साबित होती है।
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