क्रांतिकारी सतेंद्रनाथ बसु: त्याग, संघर्ष और अमर बलिदान(जन्म: 30 जुलाई 1882 — मृत्यु: 21 नवंबर 1908)


क्रांतिकारी सतेंद्रनाथ बसु: त्याग, संघर्ष और अमर बलिदान
(जन्म: 30 जुलाई 1882 — मृत्यु: 21 नवंबर 1908)

 प्रस्तावना

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास अनगिनत वीर गाथाओं और बलिदानों से भरा पड़ा है। ऐसे कई गुमनाम नायक हुए, जिन्होंने अपनी युवावस्था में ही देश के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। इन्हीं महान विभूतियों में एक नाम क्रांतिकारी सतेंद्रनाथ बसु का है। उनकी जीवन-गाथा भले ही इतिहास के पन्नों में उतनी प्रमुखता से न लिखी गई हो, लेकिन उनका संघर्ष, अदम्य साहस और अतुलनीय बलिदान आज भी हर भारतीय के हृदय में स्वतंत्रता की लौ प्रज्वलित करता है। मात्र 26 वर्ष की अल्पायु में जिस प्रकार उन्होंने राष्ट्रहित में अपने प्राणों की आहुति दी, वह आने वाली पीढ़ियों के लिए अमर प्रेरणा स्रोत है।

 जन्म और प्रारंभिक जीवन

सतेंद्रनाथ बसु का जन्म 30 जुलाई 1882 को बंगाल प्रेसीडेंसी (वर्तमान कोलकाता), ब्रिटिश भारत में एक सुशिक्षित और देशभक्त बंगाली परिवार में हुआ था। उनके परिवार का परिवेश ऐसा था, जहाँ राष्ट्रीय चेतना और बौद्धिक विचारों को महत्व दिया जाता था। बचपन से ही सतेंद्रनाथ में गहरी राष्ट्रभक्ति और सामाजिक न्याय की भावना कूट-कूट कर भरी थी।
उनकी प्रारंभिक शिक्षा के दौरान ही वे देश की तत्कालीन परिस्थितियों से अवगत होने लगे थे। उन्होंने स्वामी विवेकानंद के ओजस्वी विचारों, बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के देशभक्ति पूर्ण साहित्य और अरविंद घोष के क्रांतिकारी दर्शन से गहरी प्रेरणा ली। ये सभी महापुरुष उनके हृदय में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध विद्रोह की भावना को जगाने में सहायक सिद्ध हुए। छात्र जीवन में ही, सतेंद्रनाथ ने न केवल अकादमिक उत्कृष्टता हासिल की, बल्कि चोरी-छिपे क्रांतिकारी साहित्य का अध्ययन करना और अपने समकालीन युवाओं को संगठित करना भी शुरू कर दिया। यहीं से उनके जीवन की दिशा एक कट्टर क्रांतिकारी के रूप में निर्धारित हुई।

 क्रांतिकारी गतिविधियों में प्रवेश: सशस्त्र क्रांति का मार्ग

युवा सतेंद्रनाथ बसु का हृदय ब्रिटिश साम्राज्य की क्रूर नीतियों और भारतीयों पर हो रहे अत्याचारों को देखकर व्यथित था। उन्हें लगने लगा था कि केवल प्रार्थना और संवैधानिक सुधारों से स्वतंत्रता संभव नहीं, बल्कि सशस्त्र क्रांति ही एकमात्र मार्ग है।

अनुशीलन समिति का सदस्य

अपनी इसी विचारधारा के अनुरूप, सतेंद्रनाथ बसु ने युवावस्था में ही अनुशीलन समिति जैसे गुप्त क्रांतिकारी संगठन की सदस्यता ग्रहण की। यह समिति बंगाल में क्रांतिकारी गतिविधियों का एक प्रमुख केंद्र थी, जो युवाओं को शारीरिक प्रशिक्षण, अस्त्र-शस्त्र चलाने का ज्ञान और राजनीतिक चेतना प्रदान करती थी। इस समिति में शामिल होने के बाद, सतेंद्रनाथ का जीवन एक दृढ़ निश्चयी क्रांतिकारी की दिशा में अग्रसर हुआ। उन्होंने यहाँ से न केवल अपने शारीरिक कौशल को निखारा बल्कि ब्रिटिश राज के विरुद्ध एक सुविचारित रणनीति बनाने में भी अपनी भूमिका निभाई।

 क्रांतिकारी साहित्य और प्रचार

सतेंद्रनाथ बसु कलम के भी धनी थे। उन्होंने देशभक्ति और क्रांति से ओतप्रोत लेख लिखे, जो ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ों को हिलाने वाले थे। वे गुप्त रूप से पर्चे और प्रचार साहित्य तैयार करते थे, जिन्हें आम जनता और विशेषकर युवाओं के बीच वितरित किया जाता था। इन लेखों का उद्देश्य लोगों में राष्ट्रीय चेतना जागृत करना और उन्हें स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित करना था। उनकी लेखनी में इतनी शक्ति थी कि वह युवाओं को संगठित कर भारत को स्वतंत्र कराने के लिए कटिबद्ध कर देती थी।

युगांतर दल से संबंध

सतेंद्रनाथ बसु का संबंध युगांतर दल से भी था, जो अनुशीलन समिति की ही एक शाखा थी और सशस्त्र क्रांति के प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने अन्य साथियों जैसे खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी के साथ मिलकर ब्रिटिश अधिकारियों के खिलाफ कई साहसिक योजनाएं बनाईं। वे बम निर्माण, प्रशिक्षण और गुप्त बैठकों में सक्रिय भूमिका निभाते थे, जिसका एकमात्र लक्ष्य ब्रिटिश सत्ता को जड़ से उखाड़ फेंकना था। उनका दृढ़ विश्वास था कि ब्रिटिश हुकूमत को केवल बलपूर्वक ही भारत से बाहर निकाला जा सकता है।

मुजफ्फरपुर बमकांड और गिरफ्तारी

क्रांतिकारी आंदोलन में मुजफ्फरपुर बमकांड एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसने ब्रिटिश सरकार को हिला दिया था। 30 अप्रैल 1908 को, युवा क्रांतिकारी प्रफुल्ल चाकी और खुदीराम बोस ने बिहार के मुजफ्फरपुर में अंग्रेज जज किंग्सफोर्ड को मारने के उद्देश्य से बम फेंका था। किंग्सफोर्ड भारतीय राष्ट्रवादियों के प्रति अपने कठोर फैसलों के लिए बदनाम था। हालांकि, दुर्भाग्यवश, इस हमले में किंग्सफोर्ड बच गया और इसके बजाय दो अंग्रेज महिलाएं (श्रीमती और कुमारी कैनेडी) मारी गईं।
यद्यपि सतेंद्रनाथ बसु इस घटना में सीधे तौर पर शामिल नहीं थे, फिर भी ब्रिटिश खुफिया विभाग को इस षड्यंत्र में उनकी भूमिका के संकेत मिले। उन्हें इस घटना के मुख्य साजिशकर्ताओं में से एक मानते हुए तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया। ब्रिटिश सरकार ने उन पर राजद्रोह, हत्या के प्रयास और षड्यंत्र रचने के गंभीर आरोप लगाए। अलीपुर षड्यंत्र केस के तहत उन पर मुकदमा चलाया गया, जो उस समय का एक बहुत ही चर्चित और महत्वपूर्ण मुक़दमा था। न्यायालय ने उन्हें इस अपराध के लिए मृत्युदंड की सजा सुनाई।

 शहादत: एक अमर बलिदान

मृत्युदंड की खबर ने पूरे देश में आक्रोश पैदा कर दिया, लेकिन सतेंद्रनाथ बसु अपने निर्णय पर अडिग थे। उन्होंने अंतिम क्षण तक अपने चेहरे पर कोई शिकन नहीं आने दी। 21 नवंबर 1908 को, मात्र 26 वर्ष की आयु में, सतेंद्रनाथ बसु को कलकत्ता की अलीपुर जेल में फांसी दे दी गई।
उनकी शहादत ने भारतीय युवाओं के दिलों को झकझोर दिया। उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया, बल्कि इसने क्रांति की ज्वाला को और अधिक भड़का दिया। उनके साथी और देश के अन्य क्रांतिकारी, उनके इस बलिदान से और अधिक प्रेरित हुए और ब्रिटिश शासन के विरुद्ध अपने संघर्ष को तेज कर दिया। सतेंद्रनाथ बसु ने दिखा दिया कि स्वतंत्रता के लिए प्राणों का बलिदान देना ही सबसे बड़ा देशभक्ति है।

 योगदान और प्रभाव: एक 'गुमनाम नायक' की विरासत

सतेंद्रनाथ बसु का नाम भले ही खुदीराम बोस या भगत सिंह जितना प्रसिद्ध न हो, लेकिन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था।

 * विद्रोह की भावना का प्रज्वलन: उन्होंने अपनी गतिविधियों और बलिदान से ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध विद्रोह की भावना को युवाओं में प्रज्वलित किया। वे केवल एक नाम नहीं, बल्कि एक विचार थे जिसने हजारों युवाओं को क्रांति के लिए प्रेरित किया।

 * क्रांतिकारी संगठनों को ऊर्जा: उनके बलिदान ने देश भर में क्रांतिकारी संगठनों और गुप्त समाजों को नई ऊर्जा और गति प्रदान की। उनके निधन के बाद भी, उनके आदर्शों पर चलते हुए कई अन्य युवाओं ने स्वतंत्रता की लड़ाई में कूदने का संकल्प लिया।

 * प्रेरणा का स्रोत: सतेंद्रनाथ बसु ने यह सिद्ध कर दिया कि स्वतंत्रता के मार्ग में उम्र की कोई बाधा नहीं होती; केवल दृढ़ संकल्प, अदम्य साहस और राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण ही मायने रखता है।

इतिहासकारों ने उन्हें अक्सर "अनसंग हीरो" यानी गुमनाम नायक की उपाधि दी है, जो सचमुच उपयुक्त है। उनका नाम खुदीराम बोस, प्रफुल्ल चाकी, कन्हाईलाल दत्त और अन्य क्रांतिकारियों की श्रेणी में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है।

 स्मृति और श्रद्धांजलि

सतेंद्रनाथ बसु के बलिदान को आज भी याद किया जाता है। पश्चिम बंगाल में कई शिक्षण संस्थानों, गलियों और सार्वजनिक स्थलों का नाम उनके सम्मान में रखा गया है। ये नाम हमें इस बात की याद दिलाते हैं कि स्वतंत्रता की यह साँस हमें असंख्य बलिदानियों के त्याग से मिली है। उनका जीवन एक अमर संदेश है कि जब राष्ट्र की स्वतंत्रता की बात आती है, तो व्यक्तिगत सुख और जीवन का कोई मोल नहीं होता।

उपसंहार

क्रांतिकारी सतेंद्रनाथ बसु का जीवन त्याग, निडरता और अडिग राष्ट्रप्रेम का एक शाश्वत प्रतीक है। उन्होंने अपनी छोटी सी उम्र में ही वह कर दिखाया, जो कई लोग अपने पूरे जीवन में नहीं कर पाते। उनका बलिदान हमें यह सिखाता है कि भारतवर्ष को ऐसे वीर सपूतों पर सदा गर्व रहेगा, जिन्होंने अपने रक्त से स्वतंत्रता के वृक्ष को सींचा।
आज जब हम स्वतंत्र भारत में साँस ले रहे हैं, तो हमें इन गुमनाम नायकों के बलिदान को कभी नहीं भूलना चाहिए। सतेंद्रनाथ बसु जैसे वीरों की गाथाएं हमें प्रेरित करती हैं कि हम अपने राष्ट्र के प्रति समर्पित रहें और उसके गौरव को बनाए रखने के लिए सदैव तत्पर रहें।

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