राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन: एक राष्ट्रनिष्ठ, भाषाभक्त और संस्कृति सेवी महानायक(1 अगस्त, 1882 - 1 जुलाई, 1962)
परिचय
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे अनूठे व्यक्तित्व थे, जिन्होंने राजनीति को त्याग, सेवा और सांस्कृतिक पुनर्जागरण का माध्यम बनाया। उन्हें केवल एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में नहीं, बल्कि एक प्रखर हिंदी प्रचारक, एक आदर्शवादी राजनेता और एक 'राजर्षि' के रूप में जाना जाता है। उनका जीवन भारतीय संस्कृति, भाषा और मूल्यों के प्रति अटूट निष्ठा का प्रतीक था। 1961 में उन्हें भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया, जो सत्ता से दूर रहकर भी जनसेवा करने वाले इस महान पुरुष के प्रति राष्ट्र की सच्ची श्रद्धांजलि थी।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
पुरुषोत्तम दास टंडन का जन्म 1 अगस्त, 1882 को उत्तर प्रदेश के प्रयागराज (तब इलाहाबाद) में एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम शिवनारायण टंडन था। बचपन से ही वे कुशाग्र बुद्धि के थे और उनकी रुचि धर्म, संस्कृति और शिक्षा में थी। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रयागराज में पूरी की और बाद में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री प्राप्त की। हालांकि उन्होंने वकालत का पेशा अपनाया, लेकिन उनका मन हमेशा से ही राष्ट्र की सेवा में लगा रहता था। महात्मा गांधी के सिद्धांतों और कार्यों से प्रभावित होकर, उन्होंने चंपारण सत्याग्रह और खिलाफत आंदोलन के दौरान राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेना शुरू कर दिया। यहीं से उनके जीवन की दिशा पूरी तरह बदल गई।
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
टंडन जी गांधीजी के सच्चे अनुयायी थे और उन्होंने उनके अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों को पूरी तरह से आत्मसात कर लिया था। उन्होंने कई आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिनमें सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन**** प्रमुख थे। इन आंदोलनों के दौरान उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। उनकी संगठनात्मक क्षमता बेजोड़ थी। वे कई बार उत्तर प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए, जिससे पार्टी को जमीनी स्तर पर मजबूती मिली। 1948 में, उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा और जवाहरलाल नेहरू जैसे कद्दावर नेता के समर्थन के बावजूद, अपनी लोकप्रियता और सिद्धांतों के कारण इस चुनाव में विजयी हुए। यह उनकी जनसाधारण के बीच गहरी पैठ और सिद्धांतों के प्रति उनकी दृढ़ता का प्रमाण था।
हिंदी के लिए आजीवन संघर्ष
पुरुषोत्तम दास टंडन का नाम हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार के साथ हमेशा जुड़ा रहेगा। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करने के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने इसके लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। उनका मानना था कि राष्ट्र की आत्मा उसकी भाषा में बसती है और अंग्रेजी में नहीं।
उनके कुछ प्रमुख योगदान:
* हिंदी साहित्य सम्मेलन: उन्होंने हिंदी साहित्य सम्मेलन की स्थापना की और उसे एक आंदोलनात्मक रूप दिया, जिसका उद्देश्य हिंदी को जन-जन तक पहुँचाना था।
* देवनागरी लिपि का समर्थन: वे देवनागरी लिपि के प्रबल समर्थक थे और उनका मानना था कि यही लिपि राष्ट्र की एकता का प्रतीक बन सकती है। उन्होंने उर्दू लिपि को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का पुरजोर विरोध किया।
* अनेकों संस्थाओं का निर्माण: उन्होंने कई हिंदी प्रचार संस्थाओं और सभाओं का संचालन किया, जिसके माध्यम से हिंदी को एक सशक्त भाषा के रूप में स्थापित किया जा सका।
उनका यह कथन कि, “राष्ट्र की आत्मा उसकी भाषा में बसती है; अंग्रेज़ी में नहीं,” उनके भाषायी समर्पण को पूरी तरह से दर्शाता है।
विचार और व्यक्तित्व
टंडन जी का जीवन एक आदर्श राजर्षि का जीवन था। राजर्षि की उपाधि उन्हें उनके आत्मसंयम, वैराग्य, सेवाभाव और नैतिक जीवन के लिए मिली। वे सादगी, अहिंसा और नैतिकता के मूर्त स्वरूप थे। उन्होंने जीवनभर किसी भी सरकारी पद या सत्ता का लाभ नहीं लिया और न ही किसी प्रकार की विलासिता को अपनाया। उनके विचार पूर्णत: राष्ट्रवादी और स्वदेशी के समर्थक थे। वे पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण के घोर विरोधी थे। वे गहन धार्मिक आस्था रखते थे, लेकिन साथ ही सर्वधर्म समभाव के भी समर्थक थे। उनका मानना था कि भारतीय संस्कृति और उसके मूल्यों का संरक्षण ही राष्ट्रनिर्माण का सही आधार है।
भारत रत्न और निधन
पुरुषोत्तम दास टंडन को 1961 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया। यह सम्मान ऐसे व्यक्ति को मिला, जिसने जीवनभर सत्ता से दूर रहकर जनता और राष्ट्र की निस्वार्थ सेवा की। यह सम्मान उनके निस्वार्थ भाव और सिद्धांतों के प्रति उनकी अटूट निष्ठा को दर्शाता है।
1 जुलाई, 1962 को इस महान विभूति का निधन हो गया। उनके निधन से न केवल हिंदी जगत, बल्कि भारतीय राजनीति और सांस्कृतिक पुनर्जागरण की एक महत्वपूर्ण आवाज हमेशा के लिए खामोश हो गई।
विरासत और महत्व
राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन एक ऐसे मार्गदर्शक थे, जिनका जीवन आज भी हमें प्रेरणा देता है।
* राजनीतिक वैराग्य के आदर्श: उन्होंने यह सिद्ध कर दिया कि राजनीति सत्ता का नहीं, बल्कि सेवा का माध्यम हो सकती है।
* नवभारत के सांस्कृतिक शिल्पी: वे भारतीय संस्कृति के पुनर्जागरण के मार्गदर्शक बने और उन्होंने भारतीय भाषाओं और मूल्यों के संरक्षण को राष्ट्रनिर्माण का आधार माना।
* भाषा आंदोलन के स्तंभ: हिंदी को राजभाषा के रूप में स्थापित करने के संघर्ष में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण था। उनका यह कथन कि, "यदि देश की आत्मा को जगाना है, तो हिंदी को जगाना होगा," आज भी प्रासंगिक है।
आज जब हिंदी और भारतीय भाषाएँ वैश्वीकरण के दौर में अपनी पहचान बनाए रखने के लिए संघर्ष कर रही हैं, तब पुरुषोत्तम दास टंडन जी के विचार और संघर्ष हमें दिशा दिखाते हैं। उनका जीवन एक आदर्शशास्त्र है, जो हमें निस्वार्थ सेवा, नैतिक मूल्य और अपनी जड़ों से जुड़े रहने की सीख देता है।
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