नरेंद्र मोहन सेन: भारत के एक असाधारण स्वतंत्रता सेनानी(13 अगस्त 1887 - 23 जनवरी 1963)
नरेंद्र मोहन सेन,  भारत के उन महान क्रांतिकारियों में से एक थे, जिन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा देश की स्वतंत्रता के लिए समर्पित कर दिया था। उनका जन्म ब्रिटिश भारत के जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल में हुआ था। ढाका मेडिकल स्कूल में अपनी शुरुआती पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी ताकि वे पूरी तरह से भारत की आज़ादी की लड़ाई में हिस्सा ले सकें।
अनुशीलन समिति के साथ जुड़ाव और गुप्त नेतृत्व
युवा अवस्था में ही नरेंद्र मोहन सेन का परिचय अनुशीलन समिति से हुआ, जो भारत की स्वतंत्रता के लिए क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम देने वाला एक प्रमुख संगठन था। पुलिन बिहारी दास जैसे क्रांतिकारियों से प्रभावित होकर उन्होंने देशभक्ति की भावना को और भी मजबूत किया। 1909 में जब अंग्रेजों ने इस समिति को गैरकानूनी घोषित कर दिया, तब भी सेन ने हार नहीं मानी। उन्होंने गुप्त रूप से समिति की गतिविधियों को जारी रखा और 1910 तक वे इस संगठन के प्रमुख नेता बन गए। एक नेता के रूप में, उनका मुख्य लक्ष्य संगठन का विस्तार करना था। उन्होंने असम, मुंबई, बिहार, उत्तर प्रदेश और पंजाब जैसे दूर-दराज के क्षेत्रों में समिति की शाखाएं स्थापित कीं। इससे संगठन को एक राष्ट्रव्यापी पहचान मिली और यह सिर्फ बंगाल तक सीमित नहीं रहा।
क्रांतिकारी गतिविधियाँ और योजनाएँ
नरेंद्र मोहन सेन की नेतृत्व क्षमता का एक बड़ा प्रमाण उनकी योजनाएँ थीं। 1911 में, उन्होंने क्रांतिकारियों को रूस और जर्मनी जैसे देशों में भेजकर आधुनिक प्रशिक्षण और सैन्य योजनाएँ सीखने का प्रयास किया। इसके साथ ही, उन्होंने भारत में ही कृषि फार्मों पर हथियार प्रशिक्षण की गुप्त व्यवस्था की। समिति के सदस्यों को बम बनाना, हथियार चलाना और ब्रिटिश अधिकारियों को लक्षित करने जैसे कार्यों के लिए प्रशिक्षित किया जाता था।
गिरफ्तारी, जेल और संन्यास
सेन के क्रांतिकारी जीवन में गिरफ्तारी एक आम बात थी। 1913 में, उन्हें "बारीसाल षड़यंत्र केस" के अंतर्गत गिरफ्तार किया गया, लेकिन पुलिस उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं जुटा पाई। इसके बाद भी, 1914 में उन्हें नज़रबंद कर दिया गया और उन्हें भारत और बर्मा (वर्तमान म्यांमार) की विभिन्न जेलों में कैद रखा गया। जेल से रिहा होने के बाद, उन्होंने संन्यास ले लिया और वाराणसी में रहने लगे। हालाँकि, स्वतंत्रता की ज्वाला उनके मन में हमेशा जलती रही। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब उन्होंने फिर से अंग्रेज़ों के खिलाफ आवाज़ उठाई, तो उन्हें दोबारा जेल भेज दिया गया।
एक क्रांतिकारी का अंत
नरेंद्र मोहन सेन ने अपना जीवन देश की आज़ादी के लिए कुर्बान कर दिया। 23 जनवरी 1963 को वाराणसी में उनका निधन हुआ, लेकिन उनकी कहानी आज भी हमें याद दिलाती है कि स्वतंत्रता सिर्फ एक राजनीतिक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि यह असंख्य लोगों के त्याग, साहस और समर्पण का परिणाम थी। नरेंद्र मोहन सेन का अधूरा मेडिकल करियर भले ही एक डॉक्टर बनने के उनके सपने को पूरा न कर सका, लेकिन एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में उन्होंने जो छाप छोड़ी, वह हमेशा अमर रहेगी।

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