साहित्यकार शिवमंगल सिंह 'सुमन': काव्य और विचार की त्रिवेणी(5 अगस्त 1915- 27 नवंबर 2002)

साहित्यकार शिवमंगल सिंह 'सुमन': काव्य और विचार की त्रिवेणी(5 अगस्त 1915- 27 नवंबर 2002)

परिचय 

डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' हिंदी साहित्य के एक ऐसे नक्षत्र हैं जिनकी चमक समय के साथ कम होने के बजाय और बढ़ती जा रही है। वे केवल एक कवि नहीं थे, बल्कि एक विचारशील शिक्षाविद्, कुशल प्रशासक और समाज के प्रति सजग नागरिक थे। उनका साहित्य जीवन के यथार्थ, संघर्ष और आशा का दर्पण है, जो आज भी लाखों लोगों को प्रेरित कर रहा है।

जीवन और व्यक्तित्व: कर्मठता और सादगी का संगम

डॉ. सुमन का जन्म 5 अगस्त 1915 को उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गाँव में हुई, लेकिन उच्च शिक्षा के लिए वे काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और इलाहाबाद विश्वविद्यालय गए, जहाँ उन्होंने हिंदी साहित्य में एम.ए. और डी.फिल. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। उनकी शिक्षा का प्रभाव उनके विचारों और लेखन में स्पष्ट रूप से दिखता है। वे एक ऐसे व्यक्तित्व के धनी थे, जिनकी वाणी में विनम्रता और विचारों में दृढ़ता थी। उन्होंने अपना जीवन साहित्य, शिक्षा और सामाजिक कार्यों को समर्पित कर दिया।

साहित्यिक यात्रा: प्रगतिशील काव्य की सशक्त आवाज़

सुमन जी की साहित्यिक यात्रा छायावादोत्तर युग से शुरू हुई। उन्होंने राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक बदलाव और मानवीय मूल्यों को अपनी कविता का केंद्र बनाया। वे प्रगतिशील काव्य-धारा के प्रमुख हस्ताक्षर थे। उनकी कविताओं में जहाँ एक ओर राष्ट्रप्रेम, संघर्ष और नवजागरण का ओजस्वी स्वर है, वहीं दूसरी ओर जीवन के प्रति एक गहरा विश्वास और सकारात्मक दृष्टिकोण भी झलकता है। उनकी काव्य कृतियाँ जीवन के विविध पहलुओं को छूती हैं। 
कुछ प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं:

 * 'हिल्लोल' (1939): यह उनकी प्रारंभिक कविताओं का संग्रह है, जिसमें युवा मन के भावों और भावनाओं की अभिव्यक्ति मिलती है।

 * 'जीवन के गान' (1942): इस कृति में समाज के प्रति उनकी सजगता और प्रगतिशील विचारों की झलक मिलती है।

 * 'प्रलय-सृजन' (1950): यह उनकी महत्वपूर्ण कृति है, जिसमें उन्होंने जीवन के संघर्षों और निर्माण की गाथा गाई है।

 * 'विश्वास बढ़ता ही गया' (1948): इस संग्रह की कविताएँ विपरीत परिस्थितियों में भी आशा और आत्मविश्वास बनाए रखने का संदेश देती हैं।

 * 'युग का मोल' (1981) और 'मिट्टी की बारात' (1972): इन कृतियों में सामाजिक यथार्थ और ग्रामीण जीवन की समस्याओं का चित्रण है। 'मिट्टी की बारात' के लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था।

 * 'कटकी के फूल' (1959): इसमें उन्होंने प्रकृति और प्रेम के कोमल भावों को व्यक्त किया है।

सुमन जी की कविताएँ सरल, सहज और गेय हैं, जिसके कारण वे जनमानस के बीच अत्यंत लोकप्रिय हुईं। उनकी कविता "हिम्मत करने वालों की हार नहीं होती" आज भी करोड़ों युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

शिक्षा और प्रशासन: ज्ञान के प्रचारक

सुमन जी केवल साहित्यकार ही नहीं, बल्कि एक प्रतिबद्ध शिक्षाविद् और कुशल प्रशासक भी थे। उन्होंने विक्रम विश्वविद्यालय, उज्जैन के कुलपति के रूप में कार्य किया, जहाँ उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण सुधार किए। उनका मानना था कि शिक्षा केवल ज्ञानार्जन का साधन नहीं, बल्कि चरित्र निर्माण और राष्ट्र निर्माण का माध्यम है। उन्होंने विश्वविद्यालयों को भारतीय संस्कृति और नैतिक मूल्यों से जोड़ने का प्रयास किया। इसके अलावा, उन्होंने राज्यसभा सदस्य के रूप में भी देश की सेवा की और विभिन्न सांस्कृतिक तथा शैक्षिक संस्थाओं से जुड़कर राष्ट्र की प्रगति में योगदान दिया। भारत सरकार ने उन्हें 1974 में पद्म भूषण से सम्मानित किया, जो उनके अप्रतिम योगदान का प्रमाण है।

निधन और विरासत: एक अमर ज्योति

27 नवंबर 2002 को डॉ. शिवमंगल सिंह 'सुमन' का निधन हो गया, लेकिन उनकी साहित्यिक और वैचारिक विरासत आज भी जीवित है। उनकी कविताएँ, जिनमें जीवन के प्रति गहरी आस्था और आशा का संचार होता है, आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके रचना काल में थीं। वे हिंदी साहित्य के एक ऐसे हस्ताक्षर हैं, जिन्होंने अपनी लेखनी के माध्यम से न केवल साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि समाज को एक नई दिशा भी दी। उनकी कविता "लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती, कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती" केवल एक काव्य पंक्ति नहीं, बल्कि एक जीवन-दर्शन है। यह हमें सिखाती है कि जीवन में सफलता पाने के लिए निरंतर प्रयास और अटूट विश्वास अत्यंत आवश्यक है। डॉ. सुमन ने अपने जीवन और कृतियों से इसी दर्शन को जिया और दूसरों को भी प्रेरित किया।

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