आचार्य विनोबा भावे: भारत के युगदृष्टा संत और भूदान आंदोलन के प्रणेता(11 सितंबर 1895- 15 नवंबर 1982)


आचार्य विनोबा भावे: भारत के युगदृष्टा संत और भूदान आंदोलन के प्रणेता(11 सितंबर 1895- 15 नवंबर 1982)
भूमिका 

भारतीय इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे हुए हैं, जिन्होंने अपने विचारों और कर्मों से समाज को एक नई दृष्टि और दिशा प्रदान की। आचार्य विनोबा भावे ऐसे ही एक महापुरुष थे, जिन्हें महात्मा गांधी का "आध्यात्मिक उत्तराधिकारी" कहा जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन समाज के उत्थान, सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों को समर्पित कर दिया। वे सिर्फ़ एक समाज सुधारक ही नहीं थे, बल्कि एक संत, दार्शनिक और गांधीवादी विचारधारा के सच्चे अनुयायी भी थे।

प्रारंभिक जीवन और गांधीजी से भेंट

11 सितंबर 1895 को महाराष्ट्र के गागोड़े (अब रायगढ़) में जन्मे विनायक नरहर भावे बचपन से ही अध्यात्म और साधना की ओर प्रवृत्त थे। उनके पिता नरहर शंकर भावे एक सरकारी कर्मचारी थे, जबकि माता रुक्मिणी देवी एक धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं, जिनका उन पर गहरा प्रभाव पड़ा। बचपन से ही उन्होंने गीता, उपनिषदों और भागवत जैसे धर्मग्रंथों का गहन अध्ययन किया। 1916 में जब वे महात्मा गांधी से साबरमती आश्रम में मिले, तब से उनके जीवन का मार्ग ही पूरी तरह बदल गया। गांधीजी के सिद्धांतों से प्रभावित होकर उन्होंने जीवनभर ब्रह्मचर्य, सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह का पालन किया। गांधीजी ने उन्हें न सिर्फ़ "आचार्य" की उपाधि दी, बल्कि उन्हें अपना "आध्यात्मिक उत्तराधिकारी" भी माना।

भूदान आंदोलन: भूमिहीनों के लिए एक क्रांति

आचार्य विनोबा भावे का सबसे महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी कार्य भूदान आंदोलन था, जिसकी शुरुआत 1951 में आंध्र प्रदेश के तेलंगाना क्षेत्र से हुई। उस समय वहाँ भूमिहीन किसानों और ज़मींदारों के बीच संघर्ष चल रहा था। विनोबा भावे ने वहाँ के भूमिहीन किसानों की व्यथा सुनकर ज़मींदारों और भूमिपतियों से स्वेच्छा से अपनी ज़मीन दान करने की अपील की। उनकी इस नैतिक अपील का पहला सुखद परिणाम पोचमपल्ली गांव में मिला, जहाँ उन्हें 80 एकड़ ज़मीन दान में दी गई। यही भूदान आंदोलन की शुरुआत थी। इसके बाद उन्होंने पूरे देश में पदयात्राएं कीं और लाखों एकड़ ज़मीन भूमिहीनों को दिलवाई। यह आंदोलन सिर्फ़ ज़मीन का हस्तांतरण नहीं था, बल्कि यह प्रेम, त्याग और नैतिक चेतना के माध्यम से समाज में समानता लाने का एक अनूठा प्रयास था।
सर्वोदय, ग्राम स्वराज और अन्य कार्य

विनोबा भावे ने गांधीजी के "सर्वोदय" यानी "सभी का उदय" के आदर्श को आगे बढ़ाया। उनका मानना था कि समाज के अंतिम व्यक्ति तक विकास, समानता और न्याय पहुँचना चाहिए। उन्होंने "ग्राम स्वराज" और "ग्रामदान" की संकल्पना दी, ताकि गांव आत्मनिर्भर बन सकें और आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति का विकेंद्रीकरण हो सके। उनका मानना था कि सत्ता का केंद्रीकरण शोषण को जन्म देता है। अध्यात्म के क्षेत्र में भी उनका योगदान महत्वपूर्ण है। उन्होंने भगवद्गीता को जनसाधारण के लिए सरल भाषा में समझाया। उनके द्वारा मराठी भाषा में लिखे गए गीता प्रवचन "गीताई" को आज भी बड़े सम्मान के साथ पढ़ा जाता है।

व्यक्तित्व और सम्मान

विनोबा भावे का जीवन एक साधु-संत जैसा था। उनकी जीवन शैली अत्यंत सरल और सत्यनिष्ठ थी। उन्होंने जीवनभर समाज में समता, न्याय और शांति स्थापित करने का प्रयास किया। भूमि सुधार और सामाजिक न्याय के अग्रदूत के रूप में उन्हें आज भी याद किया जाता है। भारतीय सरकार ने उनके अतुलनीय योगदान के लिए 1983 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया।
महाप्रयाण 

15 नवंबर 1982 को, वर्धा (महाराष्ट्र) के पवनार में, उन्होंने "सल्लेखना" (संयमपूर्वक उपवास से मृत्यु) को स्वीकार किया और अपना नश्वर शरीर त्याग दिया।

उपसंहार

आचार्य विनोबा भावे का जीवन सेवा, त्याग और सत्य का एक प्रतीक है। उन्होंने दुनिया को यह दिखाया कि समाज में परिवर्तन केवल हिंसा या संघर्ष से नहीं, बल्कि प्रेम, दान और नैतिक चेतना से भी संभव है। उनका भूदान आंदोलन हमें आज भी यह संदेश देता है कि यदि हर व्यक्ति थोड़ा-थोड़ा त्याग करे, तो समाज की बड़ी-बड़ी समस्याओं का समाधान आसानी से किया जा सकता है। उनका जीवन और विचार हमें एक बेहतर समाज के निर्माण की प्रेरणा देते रहेंगे।

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