जतिंद्र दास : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी(27 अक्टूबर 1904 - 13 सितम्बर 1929)

जतिंद्र दास : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी(27 अक्टूबर 1904 - 13 सितम्बर 1929)


भारत की स्वतंत्रता संग्राम की कहानी केवल हथियारों, आंदोलनों और राजनीतिक संघर्षों की नहीं है, बल्कि इसमें असंख्य ऐसे क्रांतिकारियों के बलिदान की गाथा भी जुड़ी है, जिन्होंने राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। ऐसे ही अमर बलिदानी क्रांतिकारी थे जतिंद्रनाथ दास (जिन्हें आमतौर पर जतिंद्र दास कहा जाता है)। उन्होंने केवल 24 वर्ष की आयु में देश की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राण न्योछावर कर दिए और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर हो गए।


प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

जतिंद्र दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कलकत्ता (अब कोलकाता), पश्चिम बंगाल में हुआ था। उनके पिता का नाम बनवारीलाल दास और माता का नाम जगदीश्वरी देवी था। उनका परिवार वैष्णव परंपरा से जुड़ा हुआ और गहरे धार्मिक संस्कारों वाला था।

उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता के विद्यासागर कॉलेज से प्राप्त की। वे बचपन से ही मेधावी और देशभक्ति से ओत-प्रोत थे। युवावस्था में ही उन्होंने महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रेरणा ली और देश की सेवा का संकल्प लिया।

क्रांतिकारी जीवन की ओर रुझान

यद्यपि जतिंद्र दास गांधीजी के सत्याग्रह और अहिंसात्मक आंदोलन से प्रभावित थे, परंतु 1921 में असहयोग आंदोलन की वापसी ने उन्हें गहरी निराशा दी। इसके बाद उनका रुझान क्रांतिकारी मार्ग की ओर बढ़ा।

वे हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (HSRA) से जुड़े, जिसका नेतृत्व चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह जैसे महान क्रांतिकारी कर रहे थे। जतिंद्र दास ने बम बनाने की तकनीक और रसायन विज्ञान में विशेष दक्षता प्राप्त की थी, इसीलिए वे संगठन में वैज्ञानिक व तकनीकी सहयोगी की भूमिका निभाते थे।

गिरफ्तारी और जेल जीवन

1929 में जब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम फेंका, तब जतिंद्र दास को भी इस मामले में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें लाहौर षड्यंत्र केस में अभियुक्त बनाया गया और लाहौर सेंट्रल जेल में रखा गया।

जेल में क्रांतिकारियों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जा रहा था। उन्हें खाने, कपड़े और सफाई जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिलती थीं। इसके विरोध में भगत सिंह और उनके साथियों ने भूख हड़ताल शुरू की। जतिंद्र दास ने भी इस भूख हड़ताल में भाग लिया।


63 दिन की ऐतिहासिक भूख हड़ताल

जतिंद्र दास ने 13 जुलाई 1929 से भूख हड़ताल शुरू की। उनकी मांग थी कि राजनीतिक कैदियों के साथ मानवीय और सम्मानजनक व्यवहार किया जाए।

अंग्रेज अधिकारियों ने उन्हें तोड़ने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए।

उन्हें जबरन खाना खिलाने की कोशिश की गई, जिससे उनका स्वास्थ्य और बिगड़ गया।

भूख हड़ताल के दौरान उनका शरीर धीरे-धीरे कमजोर होता गया, परंतु उनका मनोबल अटूट रहा।


लगातार 63 दिन तक भूखे रहने के बाद 13 सितम्बर 1929 को लाहौर जेल में जतिंद्र दास का निधन हो गया।

बलिदान का प्रभाव

जतिंद्र दास के बलिदान ने पूरे भारत में गहरी हलचल मचा दी।

उनके पार्थिव शरीर को लाहौर से कलकत्ता लाया गया।

रास्ते भर लाखों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने उमड़ पड़े।

जब उनका शव कलकत्ता पहुंचा, तो वहां लगभग छह लाख लोग उनकी अंतिम यात्रा में शामिल हुए।

नेताजी सुभाषचंद्र बोस, जवाहरलाल नेहरू, सरदार पटेल और अन्य बड़े नेताओं ने उनके बलिदान को भारत की आज़ादी के लिए अमर योगदान बताया।

योगदान और महत्व

1. जतिंद्र दास ने यह सिद्ध किया कि स्वतंत्रता केवल हथियारों से नहीं, बल्कि आत्मबलिदान और धैर्य से भी प्राप्त की जा सकती है।

2. उनकी भूख हड़ताल भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में सबसे लंबी और सबसे प्रेरक घटनाओं में से एक मानी जाती है।

3. उनका बलिदान भारतीय युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बना और अंग्रेज सरकार की अमानवीय नीतियों को दुनिया के सामने उजागर कर दिया।

उपसंहार

जतिंद्र दास का जीवन अल्पायु का था, किंतु उनके बलिदान ने भारत की स्वतंत्रता की लड़ाई को नई ऊर्जा प्रदान की। वे भगत सिंह और अन्य क्रांतिकारियों के साथ उस अमर गाथा का हिस्सा बने, जिसने देश को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। उनकी शहादत आज भी हमें यह सिखाती है कि राष्ट्रहित में किया गया बलिदान कभी व्यर्थ नहीं जाता।




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