श्री चंद : गुरु नानक जी के बड़े पुत्र और उदासीन संप्रदाय के प्रवर्तक ( 8 सितम्बर 1494 ई.- 13 जनवरी 1643 ई.)
परिचय
सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी (1469–1539 ई.) का जीवन और शिक्षाएँ भारतीय समाज में आध्यात्मिक जागृति का एक अनूठा अध्याय हैं। गुरु नानक देव जी के दो पुत्र हुए—बड़ा पुत्र श्रीचंद और छोटा पुत्र लख्मीचंद। इनमें से बड़े पुत्र श्रीचंद जी ने भारतीय संत परंपरा में अपनी अलग छाप छोड़ी और आगे चलकर “उदासीन संप्रदाय” (Udasi Sampradaya) की स्थापना की। यह संप्रदाय सिख धर्म और हिंदू धर्म के बीच एक सेतु के समान माना जाता है, जिसने तप, त्याग और संन्यास के मार्ग को आत्मसात किया।
श्रीचंद जी का जीवन परिचय
- जन्म : 8 सितम्बर 1494 ई. (कई स्रोत 1494 को मानते हैं)
- जन्मस्थान : सुलतानपुर लोधी (वर्तमान पंजाब, भारत)
- पिता : गुरु नानक देव जी
- माता : माता सुलखनी
- भाई : लख्मीचंद
श्रीचंद जी बचपन से ही अत्यंत मेधावी और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। उन्होंने संस्कृत, वेद-उपनिषद और योगशास्त्र का गहन अध्ययन किया। उनके स्वभाव में तपस्या, वैराग्य और ध्यान प्रमुख थे। यही कारण था कि उन्होंने सांसारिक जीवन को त्यागकर सन्यास का मार्ग चुना।
उदासीन संप्रदाय की स्थापना
गुरु नानक देव जी के निर्वाण के पश्चात्, सिख परंपरा का नेतृत्व गुरु अंगद देव जी को सौंपा गया। लेकिन श्रीचंद जी ने गुरु गद्दी की बजाय संन्यास को स्वीकार किया और एक नए आध्यात्मिक प्रवाह की नींव रखी, जिसे “उदासीन संप्रदाय” कहा गया।
“उदासीन” का अर्थ है—वैराग्य भाव से रहना, सांसारिक मोह-माया से दूर होकर ईश्वर भक्ति करना।
उदासीन संप्रदाय की मुख्य विशेषताएँ:
- तपस्या और संन्यास – अनुयायी ब्रह्मचर्य और तपस्या का पालन करते।
- योग और ध्यान – उदासीन संप्रदाय में योगाभ्यास और ध्यान की विशेष परंपरा रही।
- सिख और हिंदू परंपरा का संगम – इसमें गुरु नानक देव जी की शिक्षाओं के साथ-साथ हिंदू संन्यास, वेदांत और योग सिद्धांतों का समन्वय हुआ।
- सेवा और त्याग – उदासीन साधु समाजसेवा और मानवता की सेवा को अपनी साधना का अंग मानते।
संप्रदाय का विकास और शाखाएँ
उदासीन संप्रदाय का प्रसार उत्तर भारत, विशेषतः पंजाब, हिमाचल, हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में हुआ। इसके चार प्रमुख केंद्र (धाराएँ) बने, जिन्हें चार ‘धुनी’ या अखाड़े कहा गया।
- निरमल अखाड़ा
- आनंद अखाड़ा
- अटल अखाड़ा
- नैन अखाड़ा
इनसे अनेक साधु-समाज निकले जिन्होंने गाँव-गाँव और नगर-नगर में धर्मप्रचार, सेवा और शिक्षा के कार्य किए।
श्रीचंद जी का प्रभाव
- उदासीन संप्रदाय ने सिख धर्म को एक संन्यासी धारा दी।
- कई मुग़ल और राजपूत शासकों ने भी उदासीन साधुओं का सम्मान किया।
- यह संप्रदाय गुरुद्वारों, मठों और आश्रमों के माध्यम से सामाजिक और धार्मिक चेतना का वाहक बना।
- उदासीन साधु सिख पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ भी करते, साथ ही योग और वेदांत का प्रचार भी।
मृत्यु और स्मृति
श्रीचंद जी ने लगभग 150 वर्ष तक लंबा जीवन व्यतीत किया। उनका देहावसान 13 जनवरी 1643 ई. में हुआ। उनके अनुयायियों ने उनकी समाधि स्थल पर स्मारक और मठ स्थापित किए, जो आज भी उदासीन संप्रदाय की विरासत को जीवित रखते हैं।
निष्कर्ष
गुरु नानक देव जी के बड़े पुत्र श्रीचंद जी ने आध्यात्मिक जीवन का मार्ग चुनकर उदासीन संप्रदाय की स्थापना की। यह संप्रदाय भारतीय भक्ति परंपरा में योग, ध्यान, त्याग और सेवा का अनूठा संगम है। श्रीचंद जी ने अपने जीवन से यह संदेश दिया कि सच्ची भक्ति सांसारिक मोह-माया से ऊपर उठकर मानवता की सेवा और ईश्वर-स्मरण में है। उनकी यह धारा आज भी कई अनुयायियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनी हुई है।
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