अशोक कुमार: भारतीय सिनेमा के शिखर पुरुष और 'दादा मुनि' का युग(13 अक्टूबर 1911 – 10 दिसंबर 2001)

अशोक कुमार: भारतीय सिनेमा के शिखर पुरुष और 'दादा मुनि' का युग(13 अक्टूबर 1911 – 10 दिसंबर 2001)

भूमिका 

अशोक कुमार (कुमुदलाल गांगुली, 13 अक्टूबर 1911 – 10 दिसंबर 2001) भारतीय सिनेमा के सदाबहार अभिनेता थे, जिन्होंने लगभग छह दशकों तक फ़िल्मी दुनिया पर राज किया। उन्हें न केवल अपनी सहज और स्वाभाविक अभिनय शैली के लिए याद किया जाता है, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने एक नया स्टारडम स्थापित किया और बाद में आने वाली कई प्रतिभाओं के लिए मार्गदर्शक बने।

लैब असिस्टेंट से सुपरस्टार तक का सफ़र

बिहार के भागलपुर में जन्मे अशोक कुमार एक उच्च-मध्यम वर्गीय बंगाली परिवार से थे। उनके पिता वकील थे और अशोक कुमार ने भी वकालत की पढ़ाई की थी। फ़िल्मों में आने का उनका कोई इरादा नहीं था। उनकी रुचि फ़िल्म निर्माण की तकनीकी पक्ष में थी, इसलिए वे अपने जीजा शशधर मुखर्जी की सहायता से बॉम्बे टॉकीज स्टूडियो में लैब असिस्टेंट के रूप में काम करने लगे।
1936 में आई फ़िल्म 'जीवन नैया' के नायक के फ़िल्म छोड़ देने के कारण, उन्हें अचानक मुख्य भूमिका निभानी पड़ी। यह संयोग उनके जीवन का सबसे बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुआ।
अभिनय में मौलिकता और 'एंटी-हीरो' का आविष्कार
अशोक कुमार ने हिंदी सिनेमा को अभिनय का एक नया आयाम दिया। उस दौर में, जहाँ नाटक-आधारित और अतिरंजित अभिनय शैली का बोलबाला था, उन्होंने सहजता (Naturalism) और साधारणता को अपनाया। उनकी आँखें, उनकी मुस्कान और बात करने का उनका सहज अंदाज़ ही उनकी पहचान बन गया।

 अछूत कन्या' (1936): इस फ़िल्म ने उन्हें और देविका रानी को देश भर में लोकप्रिय बना दिया।

  'किस्मत' (1943): यह फ़िल्म उनके करियर का शिखर थी। इस फ़िल्म में उन्होंने पहला सफल 'एंटी-हीरो' (अपराधी लेकिन सहानुभूतिपूर्ण नायक) का किरदार निभाया, जो उस समय एक बहुत बड़ा जोखिम था। फ़िल्म ने बॉक्स ऑफिस पर रिकॉर्ड तोड़ सफलता हासिल की और अशोक कुमार को 'पहले सुपरस्टार' का दर्जा दिया।

  'महल' (1949): यह फ़िल्म हिंदी सिनेमा में हॉरर/सस्पेंस शैली की पहली सफल फ़िल्मों में से एक थी।
चरित्र भूमिकाओं में महारत

1960 के दशक के बाद, अशोक कुमार ने नायक की भूमिकाएँ छोड़कर चरित्र भूमिकाओं में कदम रखा, जहाँ उनका अभिनय और भी निखर कर सामने आया। उन्होंने सिगार फूंकते हुए, सहजता से मुस्कुराते हुए एक समझदार, बुजुर्ग या चंचल पात्र की जो छवि गढ़ी, वह अमर हो गई।
 
 'आशीर्वाद' (1968): इस फ़िल्म में अपने बेमिसाल अभिनय के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार और फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार मिला। उनका गाया हुआ गाना "रेल गाड़ी रेल गाड़ी" आज भी लोकप्रिय है।
 
अन्य यादगार फ़िल्में: 'चलती का नाम गाड़ी', 'बंदिनी', 'हावड़ा ब्रिज', 'पाकीज़ा', 'छोटी सी बात', 'खूबसूरत' और 'मिली'।

बहुमुखी व्यक्तित्व: निर्माता और टीवी सूत्रधार

अशोक कुमार केवल एक अभिनेता नहीं थे, बल्कि वह एक सफल निर्माता भी थे। बॉम्बे टॉकीज़ छोड़ने के बाद उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी भी स्थापित की। उन्होंने अपनी प्रोडक्शन कंपनी के माध्यम से देव आनंद जैसे कई नए कलाकारों को मौका दिया।
इसके अतिरिक्त, वह एक बेहतरीन चित्रकार थे और होम्योपैथी की भी गहरी जानकारी रखते थे, जिसका उपयोग वह अपने दोस्तों और सहकर्मियों के इलाज में करते थे। 1980 के दशक में, दूरदर्शन के पहले सफल सोप ओपेरा 'हम लोग' में उनके सूत्रधार (Narrator) की भूमिका को दर्शकों ने खूब सराहा।
विरासत और सम्मान

अशोक कुमार को फ़िल्म इंडस्ट्री में प्यार और सम्मान से 'दादा मुनि' कहा जाता था, क्योंकि वह परिवार में सबसे बड़े थे और हमेशा एक संरक्षक की भूमिका निभाते थे। भारतीय सिनेमा को उनका योगदान अमूल्य है।
उन्हें मिले प्रमुख सम्मान:
 
दादा साहेब फाल्के पुरस्कार (1988)

 पद्म भूषण (1999)

अशोक कुमार ने अपनी सादगी, सहजता और बहुमुखी प्रतिभा से भारतीय सिनेमा के इतिहास को समृद्ध किया है। वह एक संस्था थे, जिनके अभिनय ने दो पीढ़ियों को प्रभावित किया और जो आज भी सदाबहार बने हुए हैं।

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