वीरांगना झलकारी बाई : साहस, समर्पण और अदम्य देशभक्ति की अमर कथा(22 नवंबर 1830- 4 अप्रैल 1857)
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अनेक ऐसी वीरांगनाएँ हैं जिनके साहस, शौर्य और राष्ट्रभक्ति ने आने वाली पीढ़ियों को प्रेरणा दी। ऐसी ही एक अमर योद्धा थीं झलकारी बाई, जिनका नाम सुनते ही 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला और देशभक्ति की तीव्र लपटें स्मरण हो आती हैं। वे केवल रानी लक्ष्मीबाई की छाया ही नहीं थीं, बल्कि स्वयं में एक पूर्ण योद्धा, एक रणनीतिकार और एक अदम्य संकल्प की प्रतीक थीं।
प्रारंभिक जीवन और पारिवारिक पृष्ठभूमि
झलकारी बाई का जन्म 22 नवंबर 1830 को उत्तर प्रदेश के झांसी नगर के समीप भोरो गाँव में हुआ। उनके पिता सदोषी अहिर समुदाय के वीर और कर्मठ व्यक्ति सदाराम थे। बचपन से ही झलकारी में जिज्ञासा, निर्भीकता और साहसी प्रवृत्ति के अंकुर स्पष्ट दिखाई देते थे।
लड़कियों के पारंपरिक घरेलू कामों की अपेक्षा उन्हें घुड़सवारी, जंगलों में घूमना, पेड़-पौधों की पहचान, पशुपालन और हथियार चलाने में रुचि थी। कहा जाता है कि किशोरावस्था में ही उन्होंने एक तेंदुए को अपने साहस से मारकर गाँववालों की रक्षा की थी। इसी घटना के बाद वे क्षेत्र में ‘जंगल की शेरनी’ कहलाने लगीं।
रानी लक्ष्मीबाई से परिचय और ‘दुर्गा दल’ में प्रवेश
झलकारी बाई का विवाह झांसी की सेना के घुड़सवार सैनिक पूरन कोरी से हुआ। विवाह के बाद जब वे झांसी आईं, तो रानी लक्ष्मीबाई का ध्यान उनके असाधारण साहस और युद्धकौशल पर गया।
रानी लक्ष्मीबाई का हमशक्ल होने के कारण भी उन्हें विशेष दायित्व प्रदान किया गया। रानी की महिला सेना “दुर्गा दल” में उन्हें महत्वपूर्ण स्थान मिला।
यहाँ उन्होंने तलवारबाज़ी, बंदूक चलाना, घुड़सवारी, तोप संचालन, और युद्धनीति के प्रशिक्षण प्राप्त किए तथा शीघ्र ही दुर्गा दल की प्रमुख सेनानायिकाओं में शामिल हो गईं।
1857 का विद्रोह और झांसी की रक्षा में भूमिका
जब 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला भड़की, तो झांसी इसका केन्द्र बन गई। अंग्रेजों ने झांसी पर आक्रमण शुरू किया। रानी लक्ष्मीबाई जब मोर्चे पर डटकर लड़ रही थीं, तब अंग्रेज उनकी शक्ति को तोड़ने के लिए हर संभव चाल चल रहे थे।
इसी संकट की घड़ी में झलकारी बाई ने अपने साहस से इतिहास का अनूठा अध्याय रचा।
रानी की ‘प्रतिरूप’ बनकर शत्रुओं को भ्रमित करना
झांसी किला जब चारों दिशाओं से घिर गया और हालात गंभीर हो गए, तब रानी लक्ष्मीबाई ने किले से बाहर निकलकर सैन्य पुनर्गठन का निर्णय लिया। परंतु उनकी सुरक्षित निकासी अत्यंत कठिन थी।
ऐसे समय में झलकारी बाई ने स्वयं को रानी का प्रतिरूप बनाकर शत्रु की ओर जाने का निर्णय लिया, ताकि अंग्रेजी सेना भ्रमित हो जाए और लक्ष्मीबाई सुरक्षित निकल सकें।
यह निर्णय अत्यंत साहस और आत्मबलिदान की मांग करता था। झलकारी बाई ने रानी की वेशभूषा धारण की और सीधे अंग्रेजी सेना के शिविर में पहुंच गईं।
उनकी उपस्थिति देखकर अंग्रेजों को लगा कि उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को पकड़ लिया है। इस भ्रम में वे अपनी पूरी रणनीति बदलने लगे।
इसी बीच असली रानी लक्ष्मीबाई अपनी सेना सहित सुरक्षित स्थान पर पहुंच गईं।
झलकारी का यह बलिदान झांसी की रक्षा में निर्णायक सिद्ध हुआ।
गिरफ्तारी, संघर्ष और अमर बलिदान
अंग्रेजी सेना जब झलकारी बाई को पूछताछ करने लगी तो उन्हें देर से एहसास हुआ कि जिस महिला को उन्होंने पकड़ा है वह रानी नहीं, बल्कि उनकी सबसे विश्वस्त सेनानायिका है।
कुछ ऐतिहासिक विवरण बताते हैं कि पूछताछ के दौरान भी झलकारी बाई ने अंग्रेजों को झांसी की किसी भी योजना की जानकारी नहीं दी।
कुछ विवरणों में यह उल्लेख मिलता है कि वे अंग्रेजों से बचकर निकल आईं, जबकि कुछ में उन्हें युद्ध में वीरगति 4 अप्रैल 1857 प्राप्त होने की बात आती है।
लेकिन एक तथ्य निर्विवाद है—
झलकारी बाई का बलिदान और साहस भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास की अमूल्य विरासत है।
एक दलित-बहुजन नायिका का इतिहास
झलकारी बाई की खास बात यह है कि वे समाज के ऐसे वर्ग से आईं, जिसे उस समय उचित सम्मान और अवसर नहीं मिलता था।
फिर भी उन्होंने साबित किया कि साहस, नेतृत्व और देशभक्ति जाति या जन्म पर आधारित नहीं होते।
आज वे दलित-बहुजन नारी शक्ति की प्रतीक के रूप में भी याद की जाती हैं।
झलकारी बाई का महत्व और विरासत
वे 1857 के संग्राम की सबसे साहसी महिला योद्धाओं में से एक थीं।
रानी लक्ष्मीबाई की सेना के लिए वे रणनीतिक आधार और भावनात्मक संबल थीं।
उनका बलिदान यह दर्शाता है कि झांसी की रक्षा केवल रानी लक्ष्मीबाई ने नहीं, बल्कि उनकी वीर महिलाओं ने मिलकर की थी।
आज विभिन्न राज्यों में उनके नाम पर प्रतिमाएँ, संस्थान, सड़कें, पार्क स्थापित किए गए हैं।
आधुनिक भारत में झलकारी बाई महिलाओं के लिए साहस, समानता और नेतृत्व का महान उदाहरण हैं।
निष्कर्ष
वीरांगना झलकारी बाई का जीवन भारतीय इतिहास का गौरवपूर्ण अध्याय है।
उनका साहस, कर्तव्यनिष्ठा और आत्मबलिदान हमें यह संदेश देता है कि देश की रक्षा के लिए एक साधारण महिला भी अदम्य योद्धा बन सकती है।
वे केवल झांसी की नहीं, बल्कि समूचे राष्ट्र की गौरव-गाथा हैं।
उनका शौर्य युगों तक भारतीय समाज को प्रेरित करता रहेगा।

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