क्रांतिकारी करतार सिंह सराभा : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अमर वीर(24 मई 1896 - 16 नवंबर 1915)
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कुछ नाम ऐसे हैं जो सिर्फ संघर्ष के अध्याय नहीं, बल्कि बलिदान की अमर गाथाएँ बनकर उभरते हैं। करतार सिंह सराभा ऐसा ही एक नाम है—एक नौजवान, जिसने मात्र 19 वर्ष की आयु में हँसते-हँसते देश की स्वतंत्रता के लिए अपना बलिदान दे दिया। वे गदर आंदोलन के सबसे तेजस्वी, साहसी और प्रेरणादायी सेनानियों में से एक थे। उनका जीवन अल्पकालीन अवश्य था, परंतु उनका संघर्ष और उनका जोश भारतीय युवाओं के लिए सदैव प्रेरणा का स्रोत बना रहेगा।
प्रारम्भिक जीवन और शिक्षा
करतार सिंह सराभा का जन्म 24 मई 1896 को पंजाब के लुधियाना जिले के सराभा नामक गाँव में हुआ। उनका परिवार सम्पन्न किसान-वर्ग से सम्बद्ध था। बचपन से ही वे तेजस्वी, निर्भीक और स्वाभिमानी स्वभाव के थे। आरम्भिक शिक्षा गाँव में ही हुई, जिसके बाद उच्च शिक्षा के लिए उन्हें अमेरिका भेजा गया।
अमेरिका में अध्ययन के दौरान उन्होंने भारतीय मजदूरों के शोषण, नस्लीय भेदभाव और देशविहीन प्रवासियों की पीड़ा को नज़दीक से अनुभव किया। यही अनुभव आगे चलकर उनके भीतर क्रांतिकारी ज्वाला का आधार बने।
गदर आंदोलन से जुड़ाव
1913 में अमेरिका में हिन्दुस्तानी मजदूरों व प्रवासियों ने मिलकर “गदर पार्टी” का गठन किया। इसका उद्देश्य स्पष्ट था—भारत को सशस्त्र क्रांति द्वारा ब्रिटिश शासन से मुक्त कराना।
करतार सिंह सराभा इस आंदोलन के सबसे सक्रिय, ऊर्जावान और प्रभावशाली सदस्य बन गए।
उन्होंने—
“गदर” अख़बार की छपाई और वितरण में प्रमुख भूमिका निभाई
भारतीय मजदूरों को संगठित किया
क्रांति के लिए धन और हथियार जुटाने में नेतृत्व किया
देश में क्रांति की योजना बनाकर क्रांतिकारियों को प्रशिक्षित किया
उनकी कार्यक्षमता और प्रभाव देखकर पार्टी के वरिष्ठ नेता लाला हरदयाल ने कहा था—
“यदि मैं जेल में मर जाऊँ, तो पार्टी का नेतृत्व इस वीर पंजाबी लड़के को देना।”
भारत वापसी और सशस्त्र क्रांति की योजना
1914 में प्रथम विश्व युद्ध आरम्भ हुआ। यह ब्रिटिश शासन के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह करने का उपयुक्त अवसर था। गदर पार्टी ने हजारों भारतीयों को भारत वापस भेजा ताकि भीतर से क्रांति की चिंगारी फैलाई जा सके।
करतार सिंह सराभा भी इसी उद्देश्य से भारत लौटे। उन्होंने पंजाब, उत्तर भारत और सेना के विभिन्न रेजिमेंटों में जाकर सिपाहियों को विद्रोह के लिए प्रेरित किया। वे हथियारों, धन और गुप्त संदेशों के आदान-प्रदान में केंद्रीय भूमिका निभा रहे थे।
गदर की योजना का भंडाफोड़
ब्रिटिश खुफिया विभाग को विद्रोह की भनक लग गई। सेना में घुसपैठ किए गए कुछ भारतीय सिपाहियों ने भी सरकार को जानकारी दे दी। नतीजा यह हुआ कि 21 फ़रवरी 1915 को होने वाली सशस्त्र क्रांति फूटने से पहले ही दबा दी गई।
करतार सिंह और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया। उन पर राजद्रोह, षड्यंत्र और ब्रिटिश शासन का तख़्तापलट करने का आरोप लगाया गया।
निडरता और अदम्य साहस
जब उन पर मुकदमा चला, तो अदालत में उन्होंने निर्भीक होकर कहा—
“मैंने जो किया, देश की स्वतंत्रता के लिए किया। यदि मेरा फिर जन्म हो, तो मैं फिर यही करूँगा।”
उनके इस साहस ने अंग्रेज़ों को चकित कर दिया। अभियुक्तों में वे सबसे कम उम्र के थे, परंतु सबसे अधिक निर्भीक भी।
बलिदान
16 नवंबर 1915 को, मात्र 19 वर्ष 6 महीने की अल्प आयु में, करतार सिंह सराभा को लाहौर जेल में फाँसी दे दी गई।
उनके अंतिम क्षणों में भी चेहरे पर मुस्कान थी और होंठों पर मातृभूमि का नाम।
प्रभाव और विरासत
करतार सिंह सराभा की वीरता ने अनगिनत युवाओं को क्रांति के मार्ग पर प्रेरित किया।
भगत सिंह स्वयं उन्हें अपना आदर्श मानते थे। उन्होंने कहा था
“करतार सिंह सराभा मेरा गुरु है। मैं उनसे ही क्रांति का अर्थ सीखा हूँ।”
पंजाब में उन्हें शहीद-ए-वतन कहा जाता है। उनकी स्मृति में—
विद्यालय, सड़कें और संस्थान
प्रतिमाएँ और स्मारक
साहित्यिक कृतियाँ
गदर आंदोलन के संग्रहालय
स्थापित किए गए हैं।
उपसंहार
करतार सिंह सराभा का जीवन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की वह ज्योति है, जो सदियों तक जलती रहेगी।
उन्होंने सिद्ध कर दिया कि देशभक्ति उम्र की मोहताज नहीं—साहस, संकल्प और बलिदान ही उसके आधार हैं।
उनकी कहानी भारतीय युवाओं के लिए एक संदेश है—
“देश की स्वतंत्रता, सम्मान और गौरव के लिए यदि आवश्यक हो, तो जीवन भी अर्पित किया जा सकता है — और यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाता।”

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