क्रांतिकारी सरदार सिंह राणा (10 अप्रैल 1870- 20 मई 1942)

क्रांतिकारी सरदार सिंह राणा 


परिचय

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिन प्रवासी भारतीयों ने विदेशों में बैठकर भारत की आज़ादी के लिए सशक्त और गुप्त रणनीतियाँ बनाई, उनमें सरदार सिंह राणा का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। उनका  पूरा नाम  शिवराज राय रणछोड़दास राणा था।   वे क्रांतिकारियों के संरक्षक, समर्थक और प्रेरक के रूप में जाने जाते हैं। उनका जीवन त्याग, समर्पण और राष्ट्रीय स्वाभिमान का प्रतीक था।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

सरदार सिंह राणा का जन्म 10 अप्रैल 1870 को लिमडी, सौराष्ट्र (वर्तमान गुजरात,)के एक समृद्ध परिवार में हुआ। आरंभिक शिक्षा के बाद वे उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए इंग्लैंड गए। वहाँ उन्होंने कानून की पढ़ाई की और साथ ही भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अग्रदूतों से प्रभावित होकर राष्ट्रवादी विचारधारा को आत्मसात किया।

क्रांतिकारी योगदान

1. विदेश में क्रांति का समर्थन

राणा उन शुरुआती भारतीयों में थे जिन्होंने विदेशों में भारतीय क्रांतिकारियों को संगठित करने और सहायता पहुँचाने का कार्य किया। वे श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा स्थापित "इंडिया हाउस" के प्रमुख सहयोगियों में से एक थे।

2. मदनलाल ढींगरा और सावरकर का साथ

जब मदनलाल ढींगरा ने 1909 में कर्ज़न वायली की हत्या की, तो उनके बचाव के प्रयासों में सरदार सिंह राणा ने कानूनी और राजनीतिक सहायता प्रदान की। इसके अतिरिक्त वे वी. डी. सावरकर के निकट सहयोगी थे और उन्होंने सावरकर के अभियानों को विदेशों से समर्थन दिया।

3. पेरिस और जिनेवा में सक्रियता

लंदन में ब्रिटिश निगरानी के बढ़ने पर राणा पेरिस चले गए और वहाँ से भारत विरोधी अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाई। उन्होंने "इंडियन सोशलिस्ट ग्रुप" जैसे संगठनों में सक्रिय भूमिका निभाई और जिनेवा में भी भारतीयों के लिए समर्थन जुटाया।

राजनीतिक दृष्टिकोण

राणा का दृष्टिकोण स्पष्ट था: भारत को पूर्ण स्वतंत्रता केवल संघर्ष और संगठन के माध्यम से ही मिल सकती है। उन्होंने सुधारवाद की बजाय क्रांतिकारी राष्ट्रवाद को अधिक प्रभावी माना। वे हिंसा के पक्षधर नहीं थे, लेकिन जब न्याय की बात आती थी, तो वे निडरता से क्रांतिकारियों के पक्ष में खड़े होते थे।

बाद का जीवन

बाद के वर्षों में वे भारत लौट आए और सार्वजनिक जीवन से दूर रहकर, पृष्ठभूमि में रहकर देश की सेवा करते रहे। उन्होंने ब्रिटिश शासन से सीधा टकराव नहीं किया, लेकिन क्रांतिकारियों को गुप्त रूप से सहायता देना जारी रखा।

निधन

सरदार सिंह राणा का निधन 20 मई 1942 को हुआ। उस समय भारत विश्वयुद्ध और ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ की ओर बढ़ रहा था। राणा का निधन एक ऐसे युगांत की तरह था, जब भारत के असंख्य गुमनाम सपूत अपने हिस्से की क्रांति पूरी कर जा चुके थे।

उपसंहार

सरदार सिंह राणा का जीवन एक गुप्त योद्धा की तरह था—उन्होंने मंच पर आकर भाषण नहीं दिए, लेकिन पर्दे के पीछे से क्रांति को संजीवनी दी। उनके जैसे राष्ट्रभक्तों की वजह से ही भारत की आज़ादी की लौ विदेशों तक पहुँच सकी। वे एक ऐसे नायक हैं जिनका नाम भले ही इतिहास की मुख्यधारा में न हो, परंतु उनका योगदान अमर और प्रेरणादायक है।


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