महान क्रांतिकारी दामोदर हरि चापेकर: स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम प्रज्वलित अंगारे(24 जून, 1869-18 अप्रैल, 1898 )

महान क्रांतिकारी दामोदर हरि चापेकर: स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम प्रज्वलित अंगारे(24 जून, 1869-18 अप्रैल, 1898 )


प्रस्तावना

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की गौरवशाली गाथा अनगिनत वीरों के त्याग और बलिदान से समृद्ध है। इस संघर्ष में अनेक ऐसे अप्रतिम योद्धा हुए, जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों और घोर दमन के बावजूद मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अपने प्राणों की आहुति दी। 1857 के महान विद्रोह के बाद उपजी राजनीतिक शून्यता को चीरते हुए, भारत में क्रांति की पहली सशक्त चिंगारी प्रज्वलित करने का श्रेय जिन महान क्रांतिकारियों को जाता है, उनमें दामोदर हरि चापेकर का नाम सर्वोपरि है। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य की अन्यायपूर्ण और अमानवीय नीतियों के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध का साहसिक मार्ग चुना। दामोदर हरि चापेकर आधुनिक भारत के उन पहले प्रखर राष्ट्रवादी क्रांतिकारियों में से थे, जिन्होंने व्यक्तिगत साहस और अटूट देशभक्ति के बल पर ब्रिटिश हुकूमत को सीधी चुनौती दी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि: ब्रिटिश शासन का दमनचक्र और जनमानस में आक्रोश

19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में भारत ब्रिटिश साम्राज्य के शिकंजे में बुरी तरह जकड़ा हुआ था। अंग्रेज अधिकारी न केवल राजनीतिक और आर्थिक शोषण कर रहे थे, बल्कि भारतीय संस्कृति, धर्म और नागरिकों की प्रतिष्ठा का भी निरंतर अपमान करते थे। विशेष रूप से 1896-97 के दौरान महाराष्ट्र में फैली विनाशकारी प्लेग महामारी के दौरान, ब्रिटिश सरकार ने 'महामारी नियंत्रण' के नाम पर जो क्रूर और अमानवीय कार्रवाई की, वह भारतीय जनमानस की आत्मा को झकझोर देने वाली थी।
ब्रिटिश सैनिकों और अधिकारियों ने पुणे शहर में आतंक का राज कायम कर दिया था। वे बिना किसी अनुमति के भारतीय घरों में जबरन घुसते, तलाशी के नाम पर संपत्ति को नुकसान पहुंचाते और महिलाओं के साथ अभद्र व्यवहार करते थे। लोगों को जबरन उनके घरों से बाहर निकाला जाता था और उनकी धार्मिक रीति-रिवाजों का सार्वजनिक रूप से उपहास किया जाता था। पुणे शहर में यह अत्याचार अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था, जिससे लोगों में ब्रिटिश शासन के प्रति गहरा आक्रोश और घृणा व्याप्त हो गई थी।

दामोदर हरि चापेकर का प्रारंभिक जीवन और वैचारिक निर्माण

दामोदर हरि चापेकर का जन्म 24 जून, 1869 को महाराष्ट्र के पुणे शहर में एक प्रतिष्ठित चितपावन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता, हरि विनायक चापेकर, एक धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति और कुशल कीर्तनकार थे। दामोदर स्वयं भी बचपन से ही धार्मिक और पौराणिक ग्रंथों के गहन अध्ययन में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने भारत की प्राचीन गौरवशाली परंपरा, छत्रपति शिवाजी महाराज की वीरता की कहानियों और भगवद्गीता के कर्मयोग के सिद्धांतों का अपने युवा मन पर गहरा प्रभाव ग्रहण किया था।
दामोदर का जन्म ऐसे समय और सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में हुआ था, जब भारत ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध एक नई चेतना का अनुभव कर रहा था। बाल्यावस्था से ही वे छत्रपति शिवाजी महाराज की शौर्य गाथाओं से अत्यधिक प्रेरित थे, जिन्होंने विदेशी शासन के विरुद्ध संघर्ष का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया था। उन्होंने स्वामी विवेकानंद और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जैसे राष्ट्रवादी नेताओं के विचारों को भी गहराई से आत्मसात किया था, जिन्होंने भारतीय स्वाभिमान और स्वशासन की भावना को जागृत किया था। उनके पिता, हरि चापेकर, एक कीर्तनकार होने के नाते अपनी कथाओं में पौराणिक गाथाओं के माध्यम से वीरता, धर्म और न्याय की बातें करते थे, जिनका दामोदर के नैतिक और राष्ट्रवादी मूल्यों के विकास पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इन सभी कारकों ने मिलकर युवा दामोदर के हृदय में राष्ट्रभक्ति और क्रांति की एक प्रबल चिंगारी प्रज्वलित कर दी थी।
3. पुणे में प्लेग का प्रकोप और रैंड का अमानवीय अत्याचार
जब 1896-97 में पुणे शहर प्लेग की महामारी से बुरी तरह त्रस्त था, तो ब्रिटिश सरकार ने इस संकट से निपटने के लिए वाल्टर चार्ल्स रैंड नामक एक क्रूर और असंवेदनशील अधिकारी को 'प्लेग कमिश्नर' के रूप में नियुक्त किया। रैंड और उसके मातहत ब्रिटिश सैनिकों ने महामारी नियंत्रण के नाम पर पुणे के नागरिकों पर अमानवीय अत्याचार ढाए।
ब्रिटिश सैनिक बिना किसी वैध कारण या अनुमति के भारतीय घरों में जबरन प्रवेश करते, घरों की तलाशी लेते समय संपत्ति को नुकसान पहुंचाते और निर्दोष नागरिकों को अपमानित करते थे। धार्मिक स्थलों की पवित्रता का भी उल्लंघन किया गया और भारतीय महिलाओं की गरिमा को तार-तार कर दिया गया। इन बर्बर कृत्यों ने पुणे के लोगों में भय और आक्रोश का माहौल पैदा कर दिया था। लोकमान्य तिलक ने अपने प्रसिद्ध अखबार 'केसरी' के माध्यम से ब्रिटिश सरकार के इस दमनकारी रवैये की कड़ी आलोचना की, जिसने पुणे के युवाओं में विद्रोह की भावना को और अधिक तीव्र कर दिया। दामोदर हरि चापेकर इन अत्याचारों को अपनी आँखों से देखकर भीतर ही भीतर उबल रहे थे और उन्होंने ब्रिटिश दमन के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध का मार्ग अपनाने का दृढ़ निश्चय कर लिया था।


सशस्त्र प्रतिरोध की योजना और रैंड की हत्या

दामोदर हरि चापेकर और उनके दो भाई – बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर – ने मिलकर यह निर्णय लिया कि ब्रिटिश सरकार के इस अमानवीय अत्याचार का जवाब केवल सशस्त्र प्रतिरोध से ही दिया जा सकता है। उन्होंने पुणे के प्लेग कमिश्नर रैंड, जो इन अत्याचारों का मुख्य सूत्रधार था, की हत्या की योजना बनाई।
22 जून, 1897 को महारानी विक्टोरिया की डायमंड जुबली (हीरक जयंती) के उपलक्ष्य में पुणे शहर में एक भव्य जुलूस आयोजित किया गया था। रैंड भी इस जुलूस में शामिल होने गया था। उसी रात, दामोदर और बालकृष्ण चापेकर ने रैंड की गाड़ी की पहचान की और उसका पीछा किया। जब रैंड जुलूस से लौट रहा था, तो दामोदर ने आगे बढ़कर और बालकृष्ण ने पीछे से उस पर गोलियाँ चला दीं। इस हमले में रैंड और उसका सहयोगी लेफ्टिनेंट आयर्स्ट भी मारा गया।
यह घटना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संगठित क्रांतिकारी हिंसा की पहली बड़ी और महत्वपूर्ण घटना के रूप में दर्ज हुई। इसने न केवल ब्रिटिश सरकार को हिलाकर रख दिया, बल्कि भारतीय युवाओं को भी यह संदेश दिया कि अत्याचार के विरुद्ध सशस्त्र प्रतिरोध भी संभव है।

 गिरफ्तारी

न्यायालय में शौर्यपूर्ण स्वीकारोक्ति और मृत्यु रैंड की हत्या के बाद ब्रिटिश सरकार बुरी तरह बौखला गई और पुलिस ने हत्यारों को पकड़ने के लिए व्यापक स्तर पर तलाशी अभियान चलाया, लेकिन कुछ समय तक उन्हें कोई ठोस सुराग नहीं मिला। दुर्भाग्यवश, एक स्थानीय युवक गणेश शंकर द्रविड़ ने, कथित तौर पर कुछ निजी स्वार्थों के चलते, पुलिस को चापेकर बंधुओं के बारे में सूचना दे दी।
गणेश शंकर की मुखबिरी के कारण दामोदर हरि चापेकर को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर मुकदमा चलाया गया। न्यायालय में, दामोदर ने बिना किसी भय या संकोच के रैंड की हत्या की जिम्मेदारी स्वीकार करते हुए अत्यंत शौर्यपूर्ण शब्दों में कहा: "मैंने अंग्रेजों की बर्बरता और हमारे देश के अपमान का बदला लिया है। मैंने वही किया जो एक देशभक्त को अपने देश और अपने लोगों की रक्षा के लिए करना चाहिए।"
18 अप्रैल, 1898 को पुणे की यरवदा जेल में उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई। 29 वर्ष की युवा आयु में, उन्होंने 21 अप्रैल, 1898 को हँसते-हँसते फांसी के फंदे को चूम लिया और मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

चापेकर बंधु: बलिदान की अमर गाथा

दामोदर हरि चापेकर के बलिदान के पश्चात, उनके छोटे भाई वासुदेव चापेकर ने अपने भाई की मुखबिरी करने वाले गद्दार गणेश शंकर द्रविड़ की हत्या कर दी, जिसके कारण उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया और फांसी की सजा सुनाई गई। बालकृष्ण चापेकर को भी रैंड की हत्या के षड्यंत्र में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया और 1899 में उन्हें भी फांसी दे दी गई।
इस प्रकार, चापेकर बंधु – दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण चापेकर और वासुदेव चापेकर – भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में प्रथम बलिदानी भाई-बंधुओं के रूप में अमर हो गए। उनका अद्वितीय त्याग और बलिदान आज भी देश के युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

प्रेरणा और ऐतिहासिक महत्त्व

चापेकर बंधुओं की अद्वितीय वीरता और आत्मबलिदान ने पूरे देश के युवाओं को गहराई से प्रेरित किया। उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि भारत के युवा अब ब्रिटिश अत्याचार के विरुद्ध केवल याचनाएँ नहीं करेंगे, बल्कि आवश्यकता पड़ने पर सशस्त्र प्रतिरोध का मार्ग अपनाने से भी नहीं हिचकिचाएंगे।
विनायक दामोदर सावरकर (वीर सावरकर) और उनके भाई गणेश सावरकर, भगत सिंह, राजगुरु, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे महान क्रांतिकारियों पर चापेकर बंधुओं का गहरा प्रभाव पड़ा। वीर सावरकर ने तो यहाँ तक लिखा था कि "चापेकर बंधु वह पहली चिंगारी थे, जिसने भारतीय क्रांति की विशाल मशाल को प्रज्वलित किया।" चापेकर बंधुओं ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के युवा अपनी मातृभूमि के सम्मान और स्वतंत्रता के लिए किसी भी हद तक जाने को तत्पर हैं।

 स्मृति और सम्मान

आज भी, दामोदर हरि चापेकर और उनके भाइयों के बलिदान को पूरे देश में सम्मान के साथ याद किया जाता है। पुणे, नासिक और मुंबई जैसे प्रमुख शहरों में उनकी स्मृति में सड़कें, पुस्तकालय और विभिन्न संस्थान स्थापित किए गए हैं।
1998 में, भारत सरकार के डाक विभाग ने उनकी स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए एक विशेष डाक टिकट भी जारी किया। उनके जीवन और बलिदान पर आधारित कई साहित्यिक कृतियाँ लिखी गईं और फिल्में भी बनीं, जिनमें 2001 में रिलीज हुई मराठी फिल्म "२२ जून १८९७" प्रमुख है, जो चापेकर बंधुओं के जीवन के महत्वपूर्ण घटनाओं को दर्शाती है। कई स्कूलों और कॉलेजों में आज भी उनके बलिदान दिवस पर प्रेरणादायक भाषण और नाटकों का आयोजन किया जाता है, ताकि युवा पीढ़ी उनके त्याग और देशभक्ति की भावना से परिचित हो सके।

उपसंहार 

महान क्रांतिकारी दामोदर हरि चापेकर केवल एक व्यक्ति नहीं थे, बल्कि वे भारतीय आत्मसम्मान, साहस और ब्रिटिश उपनिवेशवाद के विरुद्ध विद्रोही चेतना के एक शक्तिशाली प्रतीक थे। उन्होंने अपने अद्वितीय कृत्य से यह स्पष्ट रूप से दिखा दिया कि अत्याचार के विरुद्ध उठाई गई तलवार भी उतनी ही पवित्र और न्यायसंगत हो सकती है, जितनी कि शांतिपूर्ण सत्याग्रह की मशाल।
उनका जीवन, उनका निडर बलिदान और उनकी अटूट देशभक्ति आज भी भारत के युवाओं को जागृत करती है – उन्हें देश के लिए जीने और मरने का सच्चा अर्थ सिखाती है। दामोदर हरि चापेकर वास्तव में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले प्रज्वलित अंगारे थे, जिनकी ज्वाला ने आगे चलकर अनगिनत क्रांतिकारियों को प्रेरित किया और अंततः भारत को स्वतंत्रता दिलाई।
जय हिन्द! वंदे मातरम्!

Post a Comment

0 Comments