चक्रवर्ती राजगोपालाचारी: एक बहुआयामी व्यक्तित्व(10 दिसंबर 1878- 25 दिसंबर 1972)
भारत के इतिहास में कुछ ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने अपने विचारों, कार्यों और नैतिक मूल्यों से एक गहरी छाप छोड़ी है। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, जिन्हें 'राजाजी' के नाम से भी जाना जाता है, उनमें से एक थे। वे न केवल एक कुशल राजनेता और स्वतंत्रता सेनानी थे, बल्कि एक उत्कृष्ट विचारक, लेखक और नैतिकता के प्रतीक भी थे। उनका जीवन और योगदान आज भी हमें प्रेरित करता है।
1. प्रारंभिक जीवन और शिक्षा: नींव का निर्माण
10 दिसंबर 1878 को मद्रास प्रेसीडेंसी (वर्तमान तमिलनाडु) के सेलम जिले के थोरापल्ली गाँव में जन्मे चक्रवर्ती राजगोपालाचारी एक प्रतिष्ठित परिवार से थे। उनके पिता, चक्रवर्ती वेंकट रायालु, मद्रास उच्च न्यायालय में डिप्टी कलेक्टर थे। बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के धनी राजाजी की शिक्षा बेंगलुरु के सेंट्रल कॉलेज और मद्रास लॉ कॉलेज में हुई, जहाँ उन्होंने कानून की डिग्री प्राप्त की और वकालत शुरू की।
उनके प्रारंभिक जीवन में धार्मिक और नैतिक मूल्यों का गहरा प्रभाव था। संस्कृत साहित्य और प्राचीन भारतीय ग्रंथों, विशेषकर श्रीमद्भगवद्गीता और रामायण के अध्ययन ने उनके दर्शन और लेखन की आधारशिला रखी।
2. स्वतंत्रता संग्राम में अद्वितीय योगदान: राष्ट्र सेवा का संकल्प
1919 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से प्रभावित होकर राजाजी ने अपने सफल वकालत करियर को त्याग दिया और पूरी तरह से राष्ट्र सेवा में समर्पित हो गए। वे गांधीजी के 'सत्याग्रह, स्वदेशी और आत्मनिर्भरता' के सिद्धांतों के प्रबल समर्थक थे और उन्होंने इन मूल्यों को अपने जीवन में उतारा।
1930 में, जब गांधीजी ने दांडी मार्च का नेतृत्व किया, तो राजाजी ने दक्षिण भारत में वैदारण्य नमक सत्याग्रह का नेतृत्व करके एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अपने 96 स्वयंसेवकों के साथ 150 मील की पदयात्रा करके उन्होंने ब्रिटिश नमक कानून का उल्लंघन किया। यह सत्याग्रह दक्षिण भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में राष्ट्रीय चेतना जगाने में मील का पत्थर साबित हुआ।
3. स्वतंत्र भारत में भूमिका: राष्ट्र निर्माण में योगदान
स्वतंत्रता के बाद, लॉर्ड माउंटबेटन के पद छोड़ने पर राजाजी भारत के पहले भारतीय गवर्नर जनरल बने (1948-1950)। उन्होंने इस प्रतिष्ठित पद को भारतीय गरिमा, सादगी और उच्च सिद्धांतों के साथ सुशोभित किया।
इसके बाद, उन्होंने कुछ समय के लिए गृह मंत्री और मद्रास के मुख्यमंत्री के रूप में भी कार्य किया। उनके कार्यकाल में राज्य पुनर्गठन और शिक्षा सुधार जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में प्रगति हुई।
4. राजनीतिक दर्शन और स्वतंत्र पार्टी: वैचारिक नेतृत्व
राजाजी का राजनीतिक दर्शन उदार पूंजीवाद और न्यूनतम सरकारी हस्तक्षेप पर आधारित था। जब नेहरू और कांग्रेस समाजवादी नीतियों की ओर बढ़ रहे थे, तब राजाजी ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता, उद्यमशीलता और बाजार की शक्तियों को महत्व दिया।
उन्होंने 1959 में "स्वतंत्र पार्टी" की स्थापना करके भारतीय राजनीति को एक नई दिशा दी। यह भारत की पहली प्रमुख दक्षिणपंथी उदारवादी पार्टी थी, जिसने लोकतंत्र में एक मजबूत विपक्ष की आवश्यकता पर बल दिया। 1967 के चुनावों में स्वतंत्र पार्टी ने उल्लेखनीय प्रदर्शन किया और संसद में एक प्रभावी विपक्षी दल के रूप में उभरी।
5. साहित्यिक और बौद्धिक योगदान: ज्ञान की गंगा
राजाजी एक प्रखर वक्ता और लेखक थे। उनका साहित्यिक योगदान भारतीय संस्कृति और दर्शन को जन-जन तक पहुँचाने का एक महत्वपूर्ण माध्यम था। उन्होंने तमिल और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में रामायण, महाभारत, भगवद गीता, उपनिषद और हितोपदेश जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों का सरल और भावनात्मक अनुवाद किया। उनका उद्देश्य इन धार्मिक और नैतिक ग्रंथों के ज्ञान को आम लोगों तक पहुँचाना था।
उन्होंने बच्चों के लिए भी रामायण, महाभारत और पंचतंत्र की कहानियों को सरल और रोचक रूप में प्रस्तुत किया। उनका बाल साहित्य आज भी दक्षिण भारत के विद्यालयों में पढ़ाया जाता है और बच्चों को नैतिक मूल्यों से परिचित कराता है।
6. नैतिकता और सार्वजनिक जीवन: आदर्श व्यक्तित्व
राजाजी भारतीय राजनीति में नैतिकता और सिद्धांतों के प्रतीक थे। उन्होंने हमेशा सादा जीवन, आत्म-अनुशासन और सत्यनिष्ठा को महत्व दिया। उनके लिए सत्ता कभी व्यक्तिगत लाभ का साधन नहीं रही, बल्कि सेवा का एक माध्यम थी। उनके उच्च नैतिक मूल्यों ने उन्हें सार्वजनिक जीवन में एक अद्वितीय स्थान दिलाया।
7. सम्मान और विरासत: प्रेरणा का स्रोत
राजाजी को उनके अद्वितीय योगदान के लिए कई सम्मानों से नवाजा गया। 25 दिसंबर 1972 को 94 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया, जिससे पूरे देश में शोक की लहर दौड़ गई। आज भी उन्हें भारत के महानतम और नैतिक राजनेताओं में गिना जाता है।
उनकी विरासत एक ऐसे नेता की विरासत है जिसने अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं किया, जिसने राष्ट्र सेवा को सर्वोपरि माना और जिसने अपने साहित्यिक और बौद्धिक योगदान से समाज को दिशा दिखाई।
8. निष्कर्ष: एक नैतिक प्रहरी की अमर गाथा
चक्रवर्ती राजगोपालाचारी केवल एक राजनेता नहीं थे; वे एक दार्शनिक, लेखक, प्रशासक और मार्गदर्शक थे। उनका जीवन इस बात का जीवंत प्रमाण है कि सत्य, विचार और चरित्र ही नेतृत्व की सबसे बड़ी शक्ति हैं। आज, जब भारत को ऐसे नेताओं की आवश्यकता है जो सत्ता की बजाय सेवा से प्रेरित हों, राजाजी का नाम स्वाभाविक रूप से हमारे सामने आता है - एक ऐसे नैतिक प्रहरी के रूप में जिनकी शिक्षाएँ आज भी प्रासंगिक हैं।
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