परिचय
भारत के इतिहास में कई ऐसी वीरांगनाएँ हुई हैं जिन्होंने अपनी अटूट दृढ़ता, अदम्य साहस और उच्च आदर्शों से आने वाली पीढ़ियों को निरंतर प्रेरित किया है। इन्हीं महान नारियों में एक असाधारण नाम है – राजमाता जीजाबाई, जिन्हें हम मुख्य रूप से छत्रपति शिवाजी महाराज की जननी के रूप में जानते हैं। हालांकि, उनका योगदान केवल एक माता तक सीमित नहीं था; वे वास्तव में स्वराज्य के स्वप्न की प्रथम बीज बोने वाली, एक महान गुरु, कुशल रणनीतिकार और राष्ट्रप्रेम की साक्षात् प्रतिमूर्ति थीं।
प्रारंभिक जीवन और पालन-पोषण
जीजाबाई का जन्म 12 जनवरी, 1598 को महाराष्ट्र के बुलढाणा ज़िले में स्थित सिंधखेड़ नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता, लक्ष्मणराव जाधव, एक प्रतिष्ठित मराठा सरदार थे और माता का नाम महालसा बाई था। जीजाबाई का पालन-पोषण एक ऐसे वीर मराठा परिवार में हुआ जहाँ आत्मसम्मान, धर्मनिष्ठा और देशप्रेम की भावना कूट-कूटकर भरी हुई थी। बचपन से ही वे धार्मिक ग्रंथों, नैतिक मूल्यों और शास्त्रों के ज्ञान में पारंगत थीं, जिसने उनके व्यक्तित्व को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया।
विवाह और पारिवारिक जीवन
जीजाबाई का विवाह बीजापुर सल्तनत के अधीन एक प्रसिद्ध सेनानायक शहाजी भोंसले से हुआ। इस विवाह से उन्हें कई पुत्र-पुत्रियाँ प्राप्त हुईं, जिनमें सबसे विख्यात हुए – शिवाजी भोसले, जो आगे चलकर 'छत्रपति शिवाजी महाराज' के नाम से अमर हुए। विवाह के उपरांत जीजाबाई को एक ऐसे चुनौतीपूर्ण दौर में अपने परिवार और मराठा समाज का नेतृत्व करना पड़ा, जब मुगल साम्राज्य और दक्षिण की सल्तनतें चारों ओर से हिन्दवी स्वराज्य की अवधारणा को कुचलने पर आमादा थीं।
छत्रपति शिवाजी महाराज के जीवन निर्माण में भूमिका
शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व और उनके स्वराज्य के स्वप्न को गढ़ने में जीजाबाई की भूमिका अत्यंत निर्णायक रही। उन्होंने शिवाजी को केवल जन्म ही नहीं दिया, बल्कि उन्हें सही मायने में एक राष्ट्रनायक के रूप में ढाला:
* धार्मिक और नैतिक शिक्षा: जीजाबाई ने शिवाजी को रामायण, महाभारत, भगवद्गीता और अन्य हिन्दू धर्मग्रंथों की कहानियों और शिक्षाओं से अवगत कराया।
* न्याय और धर्म का पाठ: उन्होंने शिवाजी के मन में यह गहराई से बैठाया कि जिस प्रकार भगवान राम ने रावण का और भगवान कृष्ण ने कंस का अंत किया, उसी प्रकार अन्याय का अंत करना ही परम धर्म है।
* स्वराज्य का बीजारोपण: जीजाबाई ने शिवाजी के हृदय में स्वराज्य का बीज रोपा – एक ऐसा स्वतंत्र राज्य जहाँ धर्म, न्याय, आत्मसम्मान और लोक कल्याण सर्वोपरि हो। उन्होंने उन्हें अन्याय के विरुद्ध खड़े होने और अपनी संस्कृति की रक्षा करने की प्रेरणा दी।
संघर्षों से भरा जीवन
राजमाता जीजाबाई का जीवन निरंतर संघर्षों और चुनौतियों से परिपूर्ण रहा:
* उनके पति शहाजी को बीजापुर सल्तनत द्वारा कई बार बंधक बनाया गया, जिससे परिवार पर गहरा संकट आया।
* शिवाजी की युवावस्था में ही राजकीय और प्रशासनिक कार्यों का विशाल भार उन पर आ गया।
* कई बार उनके स्वराज्य के क्रांतिकारी विचारों को परिवार और समाज के कुछ वर्गों द्वारा अव्यावहारिक माना गया।
परंतु जीजाबाई ने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने शिवनेरी दुर्ग में रहते हुए अपने पुत्र को एक वीर, न्यायप्रिय और राष्ट्रभक्त योद्धा के रूप में तैयार किया, जो आगे चलकर 'लोकमान्य' और 'छत्रपति' के रूप में विख्यात हुए।
राजनीति और प्रशासन में योगदान
जीजाबाई केवल एक ममतामयी माँ ही नहीं, अपितु एक प्रभावशाली प्रशासक और दूरदर्शी नेता भी थीं। जब शिवाजी युद्ध अभियानों में व्यस्त रहते थे, तब वह कुशलतापूर्वक प्रशासन का संचालन करती थीं:
* उन्होंने प्रजा के साथ न्याय सुनिश्चित किया और उनकी समस्याओं का समाधान किया।
* उन्होंने मंदिरों के जीर्णोद्धार में सहयोग दिया और धार्मिक स्थलों की गरिमा बनाए रखी।
* उन्होंने किसानों और स्त्रियों की स्थिति सुधारने हेतु कई योजनाएं बनाईं, जिससे सामाजिक स्थिरता और खुशहाली बढ़ी।
धर्म और संस्कृति की संरक्षिका
जीजाबाई एक गहरी धार्मिक आस्था रखने वाली महिला थीं, परंतु उनकी धर्मनिष्ठा कट्टरता में नहीं, बल्कि सहिष्णुता में परिलक्षित होती थी। उन्होंने शिवाजी को यह सिखाया कि हर धर्म का सम्मान किया जाना चाहिए, किंतु अपनी संस्कृति और पहचान की रक्षा सर्वोपरि है। उन्होंने भारत की प्राचीन वैदिक परंपराओं और संस्कारों को पुनर्जीवित करने की प्रेरणा दी, जिससे लोगों में अपनी जड़ों के प्रति गौरव का भाव जागृत हुआ।
छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक: एक स्वप्न की पूर्ति
राजमाता जीजाबाई के जीवन का सबसे बड़ा गौरवशाली क्षण तब आया जब उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को छत्रपति के रूप में विधिवत राज्याभिषेक करते देखा। यह वही स्वराज्य था जिसकी उन्होंने कल्पना की थी, जिसके लिए उन्होंने अनगिनत त्याग किए और जिसकी नींव उन्होंने स्वयं अपने हाथों से रखी थी। यह उनके जीवन के संघर्षों और सपनों की साकार होती हुई परिणति थी।
निधन और विरासत
17 जून, 1674 को राजमाता जीजाबाई का देहांत हो गया। उनका निधन छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के कुछ ही दिनों बाद हुआ, मानो वे केवल इसी क्षण को देखने और अपने जीवन के लक्ष्य को पूर्ण करने के लिए जीवित थीं।
राजमाता जीजाबाई की विरासत आज भी मराठी और भारतीय जनमानस में जीवंत है:
* वे मातृत्व की शक्ति, नारी नेतृत्व और अदम्य देशभक्ति की एक अमर मूर्ति बन चुकी हैं।
* महाराष्ट्र में कई संस्थान, विद्यालय और सार्वजनिक स्थल उनके नाम पर हैं, जो उनके योगदान को याद दिलाते हैं।
* उन्हें श्रद्धापूर्वक 'स्वराज्य जननी' (स्वराज्य की जननी) के नाम से पुकारा जाता है।
निष्कर्ष
राजमाता जीजाबाई केवल एक पुत्र की जननी नहीं थीं, बल्कि वे सच्चे अर्थों में एक राष्ट्र की जननी थीं। उनके विराट व्यक्तित्व में मातृत्व की असीम ममता, एक योद्धा की दृढ़ता, एक कुशल शिक्षिका की नीति और एक दूरदर्शी प्रशासक की क्षमता एक साथ समाहित थी। यदि छत्रपति शिवाजी महाराज हिन्दवी स्वराज्य के संस्थापक थे, तो राजमाता जीजाबाई उस स्वराज्य की प्रथम प्रेरणा, उसका आधार और उसके प्राण थीं। उनका जीवन और आदर्श आज भी हमें अन्याय के विरुद्ध खड़े होने, अपनी संस्कृति की रक्षा करने और एक गौरवशाली राष्ट्र के निर्माण के लिए प्रेरित करते हैं।
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