भील बालिका काली बाई: जलते दीप सी क्रांति की चिंगारी (बलिदान दिवस 19 जून 1947)
परिचय
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम, एक ऐसा महायज्ञ जिसमें अनगिनत भारतीयों ने अपने प्राणों की आहुति दी, परंतु कुछ ऐसे भी नाम हैं जो इतिहास के पन्नों में उतनी प्रमुखता से दर्ज नहीं हो पाए जितनी उन्हें मिलनी चाहिए थी। इन्हीं में से एक है भील बालिका काली बाई, जिसने मात्र 13 वर्ष की अल्पायु में ब्रिटिश सत्ता और रियासती अत्याचार के खिलाफ अपनी जान न्योछावर कर दी। उनका बलिदान यह सिद्ध करता है कि स्वतंत्रता की लौ केवल शहरों या राजनीतिक गलियारों तक सीमित नहीं थी, बल्कि यह दूरदराज के आदिवासी समुदायों, विशेषकर भील जनजाति की बेटियों के हृदय में भी उतनी ही तीव्रता से प्रज्वलित हो रही थी। काली बाई का नाम आज भी त्याग, साहस और शिक्षा के प्रति अटूट निष्ठा का प्रतीक है।
जीवन परिचय और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
काली बाई का जन्म राजस्थान के डूंगरपुर ज़िले के मेघपुरा गाँव में एक साधारण भील परिवार में हुआ था। उनकी जनजाति भील थी, जो अपनी वीरता, स्वाभिमान और प्रकृति से गहरे जुड़ाव के लिए जानी जाती है। उनका जीवन उस दौर का प्रतिबिंब है जब भारत स्वतंत्रता के अंतिम पड़ाव पर था (1940 का दशक)। इस समय देश के हर कोने में आजादी की अलख जग चुकी थी।
डूंगरपुर रियासत, जो ब्रिटिश राज के अधीन थी, में भी आदिवासी समुदाय में अपने अधिकारों, शिक्षा और स्वतंत्रता के प्रति चेतना बढ़ रही थी। उस समय की ब्रिटिश नीतियाँ और रियासती प्रशासन, आदिवासी समाज को शिक्षा से वंचित रखना चाहते थे ताकि वे संगठित न हो सकें और अपने अधिकारों की मांग न कर सकें। भील समुदाय, जो सदियों से अपनी भूमि और संस्कृति के लिए संघर्ष करता आया था, के लिए शिक्षा एक ऐसा हथियार थी जो उन्हें गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कर सकती थी।
शिक्षा का महत्व और संघर्ष की शुरुआत
काली बाई उन चुनिंदा बालिकाओं में से थी जिन्हें पढ़ने का अवसर मिला। वह डूंगरपुर के वीर तेजा स्कूल में पढ़ने जाती थी। यह स्कूल आदिवासियों के बीच शिक्षा और जागरूकता फैलाने का एक महत्वपूर्ण केंद्र बन गया था। इस स्कूल को स्थानीय जनसेवक और शिक्षक, जैसे नानाभाई खांट और सिंगाभाई जैसे लोग चला रहे थे। ये शिक्षक आदिवासियों को न केवल अक्षर ज्ञान दे रहे थे, बल्कि उन्हें अपने अधिकारों, सामाजिक बुराइयों और ब्रिटिश राज के शोषण के प्रति भी जागरूक कर रहे थे।
रियासती शासकों और ब्रिटिश अधिकारियों को यह बात बिल्कुल रास नहीं आ रही थी कि "भील" जैसे आदिवासी बच्चे पढ़-लिखकर सामाजिक चेतना प्राप्त कर रहे हैं। उन्हें डर था कि अगर आदिवासी शिक्षित हो गए, तो वे अपने खिलाफ हो रहे अन्याय को पहचानेंगे और विद्रोह करेंगे। इसी डर के चलते उन्होंने इस स्कूल को बंद करवाने और उसके शिक्षकों को गिरफ्तार करने की योजना बनाई।
बलिदान की अमर गाथा: 19 जून 1947
काली बाई का बलिदान 19 जून 1947 को एक ऐसी घटना के रूप में दर्ज हुआ जिसने डूंगरपुर रियासत में स्वतंत्रता आंदोलन की आग को और भड़का दिया। उस दिन, ब्रिटिश और रियासती पुलिस दल वीर तेजा स्कूल पर हमला करने और शिक्षक नानाभाई खांट को गिरफ्तार करने पहुंचा। नानाभाई खांट ने बच्चों और अन्य शिक्षकों को सुरक्षित निकालने की कोशिश की, लेकिन पुलिस ने उन्हें पकड़ लिया और बुरी तरह पीटा। जब सिंगाभाई, एक अन्य शिक्षक, नानाभाई को बचाने आए, तो उन्हें भी बेरहमी से पीटा गया और एक वाहन से बांधकर घसीटा जाने लगा।
काली बाई, जो उस समय स्कूल में ही मौजूद थी, यह बर्बरता देखकर अवाक रह गई। उसकी उम्र भले ही छोटी थी, लेकिन उसका साहस हिमालय जैसा विशाल था। उसने देखा कि उसके गुरु को घसीटा जा रहा है और वह मरणासन्न अवस्था में हैं। बिना कुछ सोचे-समझे, वह पास पड़ी एक दार (लकड़ी काटने वाली कुल्हाड़ीनुमा औजार) उठाई और उसे लेकर सिंगाभाई को घसीट रहे वाहन की रस्सी काटने के लिए दौड़ पड़ी।
उसने अपनी जान की परवाह न करते हुए रस्सी काट दी, जिससे सिंगाभाई स्वतंत्र हो गए। इस निडरता को देखकर पुलिसकर्मी enraged हो गए। उन्होंने काली बाई पर गोलियां चला दीं। मात्र 13 वर्ष की यह नन्ही बालिका कई गोलियां लगने के बावजूद अपने गुरु को बचाने में सफल रही, लेकिन खुद वहीं वीरगति को प्राप्त हो गई। यह घटना भारत की स्वतंत्रता से ठीक दो महीने पहले हुई थी, जब देश आजादी की दहलीज पर खड़ा था।
काली बाई का बलिदान: क्रांति की प्रेरणा और प्रभाव
काली बाई की शहादत ने न केवल उसके गाँव या भील समुदाय को झकझोर दिया, बल्कि पूरे राजस्थान के लिए यह एक जागरण का प्रतीक बनी। एक नाबालिग बालिका के इस अदम्य साहस और बलिदान ने यह दिखा दिया कि स्वतंत्रता की इच्छा किसी भी जाति, उम्र या लिंग की मोहताज नहीं होती। उनके बलिदान ने आदिवासी समुदाय, विशेषकर लड़कियों को शिक्षा प्राप्त करने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की प्रेरणा दी।
उनके बलिदान के बाद डूंगरपुर में विरोध प्रदर्शन तेज हो गए। रियासत को जनता के भारी आक्रोश का सामना करना पड़ा। इस घटना ने आदिवासी क्षेत्रों में शिक्षा के प्रति अलख जगाई और उन्हें अपने अधिकारों के प्रति अधिक जागरूक किया।
स्थानीय प्रभाव और श्रद्धांजलि
आज भी काली बाई को राजस्थान में एक लोकनायिका और प्रेरणास्रोत के रूप में याद किया जाता है:
* काली बाई भील मेधावी छात्रा स्कूटी योजना: राजस्थान सरकार ने मेधावी छात्राओं को उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित करने हेतु यह योजना शुरू की है, जो काली बाई के नाम पर है। यह योजना छात्राओं को स्कूटी प्रदान करती है ताकि वे स्कूल आसानी से जा सकें।
* विद्यालय और संस्थान: डूंगरपुर ज़िले और आसपास के क्षेत्रों में कई विद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों का नाम ‘कालीबाई’ के नाम पर रखा गया है, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ उनके बलिदान को याद रख सकें।
* बलिदान दिवस: हर साल 19 जून को, उनकी शहादत को बलिदान दिवस के रूप में मनाया जाता है, जिसमें विभिन्न सरकारी और स्वयंसेवी संस्थाएँ उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करती हैं।
* स्मारक: डूंगरपुर में उनकी स्मृति में स्मारक और प्रतिमाएँ स्थापित की गई हैं।
उपसंहार
भील बालिका काली बाई का बलिदान भारतीय इतिहास के उन सुनहरे अध्यायों में से है, जिसे भले ही औपचारिक इतिहास पुस्तकों में अधिक स्थान न मिला हो, परंतु जनमानस में वह 'छोटी उम्र की बड़ी क्रांतिकारी' के रूप में सदैव जीवित रहेंगी। काली बाई न केवल एक नाम है, बल्कि वह प्रतीक है—आदिवासी अस्मिता, नारी शक्ति और शिक्षा के अधिकार के लिए किए गए अद्वितीय संघर्ष का। उनका बलिदान हमें याद दिलाता है कि स्वतंत्रता की कीमत अनमोल है और इसे पाने के लिए हर वर्ग, हर आयु और हर लिंग के व्यक्ति ने अपना सर्वोच्च योगदान दिया है। आज भी उनकी कहानी हमें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने और शिक्षा के महत्व को समझने के लिए प्रेरित करती है।
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