दुर्गा प्रसाद खत्री: तिलिस्म, ऐयारी और जासूसी साहित्य के पुरोधा(12 जुलाई, 1895 - 5 अक्टूबर, 1974)
भूमिका
हिंदी साहित्य में जब भी तिलिस्मी और जासूसी उपन्यासों की बात होती है, तो बाबू देवकीनंदन खत्री का नाम सबसे पहले लिया जाता है, लेकिन उनके ही ज्येष्ठ पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने भी इस परंपरा को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि उसे नई दिशा भी दी। दुर्गा प्रसाद खत्री ने अपने पिता की विरासत को सम्मानपूर्वक संभाला और अपनी रचनाओं में ऐयारी, तिलिस्म के साथ-साथ जासूसी, सामाजिक और राष्ट्रीय भावनाओं को भी पिरोया, जिससे उनकी कृतियों को एक अनूठा स्थान मिला।
जीवन परिचय
दुर्गा प्रसाद खत्री का जन्म 12 जुलाई, 1895 को वाराणसी (तत्कालीन काशी) में हुआ था। वे बाबू देवकीनंदन खत्री के सबसे बड़े पुत्र थे। उनके घर में बचपन से ही साहित्यिक और रचनात्मक माहौल था, जिसने उनकी लेखन प्रतिभा को विकसित होने का अवसर दिया।
उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा काशी में ही प्राप्त की और 1912 में विज्ञान और गणित में विशेष योग्यता के साथ स्कूल लीविंग परीक्षा पास की। हालाँकि, गणित और विज्ञान में अच्छी पकड़ होने के बावजूद उन्होंने लेखन को अपना करियर चुना। यह उनके भीतर छिपी साहित्यिक अभिरुचि और पिता की विरासत को आगे बढ़ाने की इच्छा का ही परिणाम था।
साहित्यिक यात्रा और योगदान
दुर्गा प्रसाद खत्री ने अपने लेखन की शुरुआत अपने पिता की परंपरा को निभाते हुए की। उन्होंने देवकीनंदन खत्री के अधूरे उपन्यास "भूतनाथ" को पूरा किया, जिसे पाठकों ने खूब सराहा। यह उनकी पहली बड़ी सफलता थी और इसने उन्हें तिलिस्मी साहित्य के क्षेत्र में एक पहचान दिलाई।
उनकी लेखन शैली उनके पिता से प्रभावित थी, लेकिन उन्होंने अपने उपन्यासों को एक नया आयाम दिया। उनकी रचनाओं को मुख्य रूप से चार श्रेणियों में बांटा जा सकता है:
* तिलिस्मी और ऐयारी उपन्यास: इस श्रेणी में उन्होंने अपने पिता की परंपरा का बड़ी बारीकी से अनुसरण किया। उनके उपन्यास "रोहतास मठ" (दो खंडों में) और "रक्त मंडल" जैसे उपन्यास इस विधा के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। इनमें तिलिस्म और ऐयारी की रोचक दुनिया को खूबसूरती से दर्शाया गया है।
* जासूसी उपन्यास: दुर्गा प्रसाद खत्री ने हिंदी में जासूसी उपन्यासों की एक नई परंपरा शुरू की। उनके जासूसी उपन्यासों में केवल रहस्य और रोमांच ही नहीं था, बल्कि वे तत्कालीन सामाजिक और राष्ट्रीय समस्याओं से भी जुड़े हुए थे। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उन्होंने अपने कई उपन्यासों में राष्ट्रीय भावना और क्रांतिकारी आंदोलनों को प्रतिबिंबित किया। "लाल पंजा" और "सफेद शैतान" जैसे उपन्यास इसके प्रमाण हैं, जो जासूसी होते हुए भी देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत थे।
* सामाजिक उपन्यास: जासूसी और तिलिस्मी लेखन के अलावा, उन्होंने सामाजिक विषयों पर भी कलम चलाई। उनके सामाजिक उपन्यास समाज में प्रेम के अनैतिक रूपों और उनके दुष्परिणामों को उजागर करते थे।
* अद्भुत किन्तु संभाव्य घटनाओं पर आधारित उपन्यास: इन उपन्यासों में वे ऐसी घटनाओं का चित्रण करते थे जो अविश्वसनीय लगती थीं, लेकिन जिनकी एक वैज्ञानिक या तार्किक व्याख्या होती थी। यह उनकी विज्ञान और गणित की पृष्ठभूमि का प्रभाव था।
दुर्गा प्रसाद खत्री ने अपने जीवनकाल में लगभग 31 उपन्यास और 1500 से अधिक कहानियाँ लिखीं। उन्होंने "उपन्यास लहरी" और "रणभेरी" जैसी साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन भी किया, जिससे वे नए लेखकों को मंच प्रदान कर सकें।
निष्कर्ष
दुर्गा प्रसाद खत्री का 5 अक्टूबर, 1974 को निधन हो गया, लेकिन उनका योगदान हिंदी साहित्य में अविस्मरणीय है। उन्होंने अपने पिता की तिलिस्मी विरासत को नई पीढ़ी तक पहुँचाया और जासूसी साहित्य में राष्ट्रीय चेतना को जगाकर एक नई धारा का सूत्रपात किया। उनकी रचनाएँ आज भी पाठकों को आकर्षित करती हैं और यह सिद्ध करती हैं कि वे केवल एक महान लेखक के पुत्र ही नहीं, बल्कि स्वयं भी एक प्रतिभाशाली और दूरदर्शी साहित्यकार थे। उनकी कृतियाँ हिंदी के लोकप्रिय साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
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