मदन मोहन: ग़ज़लों और रागों के जादूगर( 25 जून 1924 - 14 जुलाई 1975)

मदन मोहन: ग़ज़लों और रागों के जादूगर( 25 जून 1924 - 14 जुलाई 1975)

भूमिका 

हिंदी फिल्म संगीत के इतिहास में कुछ ही संगीतकार ऐसे हुए हैं जिनकी धुनें आत्मा को छू जाती हैं। इन्हीं में से एक नाम है मदन मोहन, जिन्हें 'ग़ज़लों का शहंशाह' कहा जाता है। उन्होंने ग़ज़ल और भारतीय शास्त्रीय संगीत को फिल्मी गीतों में इस तरह पिरोया कि उनकी हर रचना संवेदना, गहराई और रूहानियत का एक अनुपम उदाहरण बन गई। आज भी उनका संगीत श्रोताओं को उसी तरह भावविभोर करता है, जैसे उनके अपने दौर में किया करता था।

जीवन और संगीतमय सफर

मदन मोहन कोहली का जन्म 25 जून 1924 को बगदाद (इराक) में हुआ था। उनके पिता राय बहादुर चुन्नीलाल कोहली एक फिल्म निर्माता थे, जो बॉम्बे टॉकीज से जुड़े थे। भारत लौटने के बाद, मदन मोहन की रुचि बचपन से ही संगीत में बढ़ी, खासकर ग़ज़लों और शास्त्रीय संगीत में।
उन्होंने शुरुआत में ऑल इंडिया रेडियो (AIR), लखनऊ में एक संगीत निर्देशक के रूप में काम किया, जहाँ उन्हें बेग़म अख्तर और तलत महमूद जैसे महान कलाकारों के साथ काम करने का मौका मिला। 1950 में फिल्म "आँखें" से उन्होंने बतौर संगीतकार फिल्मी दुनिया में कदम रखा, लेकिन उन्हें असली पहचान 1956 की फिल्म "भाई-भाई" से मिली।

संगीत की अनूठी पहचान

मदन मोहन के संगीत की सबसे बड़ी विशेषता थी उसका गहरा भावनात्मक और शास्त्रीय आधार।
 ग़ज़लों का अद्वितीय प्रयोग: उन्होंने ग़ज़लों को सिर्फ़ शब्दों तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्हें मधुर धुनों से सजाकर एक लोकप्रिय और प्रभावी कला माध्यम बना दिया।
  रागों का अद्भुत संगम: उनके गीतों में राग यमन, भैरवी, दरबारी और अन्य रागों का अद्भुत इस्तेमाल देखने को मिलता है। उन्होंने इन रागों को इस तरह से गीतों में ढाला कि वे जनसामान्य के लिए भी सुलभ और सुरीले बन गए।
  लता मंगेशकर से अमर जोड़ी: लता मंगेशकर के साथ मदन मोहन की जोड़ी को भारतीय संगीत जगत की सबसे बेहतरीन जोड़ियों में से एक माना जाता है। लता जी ने उनके लिए सैकड़ों गीत गाए और खुद कहा था कि मदन मोहन के संगीत में जो दर्द और आत्मा है, वह और कहीं नहीं मिलती।

यादगार फिल्में और अमर गीत

अपने 25 साल के करियर में मदन मोहन ने कई यादगार फिल्मों को अपने संगीत से अमर कर दिया।

 * "आपकी नज़रों ने समझा" - फिल्म अनपढ़ (1962)

 * "लग जा गले", "नैना बरसे रिमझिम रिमझिम" - फिल्म वो कौन थी (1964)

 * "ऐ मेरे वतन के लोगों" - फिल्म हक़ीक़त (1964)

 * "तू जहाँ जहाँ चलेगा" - फिल्म मेरा साया (1966)

 * "हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह" - फिल्म दस्तक (1970)

 * "रुके रुके से क़दम", "दिल ढूँढता है" - फिल्म मौसम (1975)

फिल्म "हीर रांझा" (1970) में पूरे संवादों को छंदों में ढालकर उन्होंने एक ऐसा अनूठा प्रयोग किया, जो भारतीय सिनेमा के इतिहास में बेमिसाल है।

विरासत जो आज भी जीवित है

यद्यपि मदन मोहन को अपने जीवनकाल में व्यावसायिक सफलता कम मिली, लेकिन उनकी कला की गुणवत्ता को हमेशा सराहा गया। फिल्म "दस्तक" के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीत निर्देशक का राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिला।
14 जुलाई 1975 को मात्र 51 वर्ष की आयु में उनका निधन भारतीय संगीत जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति थी। लेकिन उनकी विरासत यहीं ख़त्म नहीं हुई। 2004 में, यश चोपड़ा ने अपनी फिल्म "वीर-ज़ारा" के लिए मदन मोहन की कुछ अप्रकाशित धुनों का इस्तेमाल किया, जिससे एक नई पीढ़ी ने उनके संगीत के जादू को महसूस किया।
मदन मोहन का संगीत कलात्मक गुणवत्ता का एक ऐसा प्रतीक है जो पीढ़ियों तक संगीत प्रेमियों को मंत्रमुग्ध करता रहेगा। उनकी रचनाएँ आज भी उन लोगों के लिए एक अमूल्य निधि हैं जो संगीत में सुकून और गहराई की तलाश करते हैं। उनका संगीत हमेशा जीवित रहेगा, हर उस दिल की धड़कन में जो संगीत से प्यार करता है।

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