आशा पूर्णा देवी: साहित्य की महानदी में एक अनूठी धारा( 8 जनवरी 1909- 13 जुलाई 1995)

आशा पूर्णा देवी: साहित्य की महानदी में एक अनूठी धारा( 8 जनवरी 1909- 13 जुलाई 1995)


परिचय

आशा पूर्णा देवी (1909–1995) बांग्ला साहित्य की एक महान कथाकार, उपन्यासकार और महिला सशक्तिकरण की मुखर आवाज थीं। उन्होंने समाज में स्त्रियों की स्थिति, उनकी आकांक्षाओं, संघर्षों और चेतना को अत्यंत गहराई और संवेदनशीलता से चित्रित किया। उनका लेखन बंगाल की पारंपरिक संस्कृति और बदलते सामाजिक परिदृश्य का एक सच्चा दर्पण है। उन्हें विशेष रूप से उनके कालजयी उपन्यास "प्रथम प्रतिश्रुति", "सुबर्णलता" और "बकुल कथा" के लिए जाना जाता है।

जन्म और प्रारंभिक जीवन

आशा पूर्णा देवी का जन्म 8 जनवरी 1909 को तत्कालीन ब्रिटिश भारत के बंगाल प्रेसीडेंसी में स्थित पोटोलडांगा, कोलकाता में हुआ था। उनका पूरा नाम आशा पूर्णा देवी गुप्ता था। उनके माता-पिता, हरेंद्रनाथ गुप्ता और सरस्वती देवी, दोनों ही शिक्षित थे और साहित्यिक अभिरुचि रखते थे। उनका परिवार परंपरागत था, और उस समय की सामाजिक मान्यताओं के अनुसार घर में बालिकाओं की औपचारिक स्कूली शिक्षा का विरोध था। इसी कारण, आशा पूर्णा देवी कभी विद्यालय नहीं जा पाईं। इसके बावजूद, उन्होंने घर पर ही स्वयं अध्ययन किया और बंगाली, संस्कृत, हिंदी और अंग्रेज़ी का अच्छा ज्ञान अर्जित कर अपनी साहित्यिक यात्रा की नींव रखी।

साहित्यिक यात्रा की शुरुआत

आशा पूर्णा देवी ने मात्र 13 वर्ष की आयु में ही लेखन की दुनिया में कदम रख दिया था। उनकी पहली कविता बाल पत्रिका "सृष्टि" में प्रकाशित हुई। इसके बाद उन्होंने कहानियाँ और उपन्यास लिखने शुरू किए। उनकी पहली कहानी "पात्र और पत्रिका" (1927) थी।
उनकी लेखनी का मूल स्वर हमेशा महिला चेतना, पारिवारिक रिश्तों, सामाजिक असमानता, स्त्रियों की शिक्षा, विवाह, स्वतंत्रता और आत्म-सम्मान जैसे विषयों पर केंद्रित रहा।

प्रमुख कृतियाँ

उनके साहित्य में लगभग 250 से अधिक उपन्यास, 1000 से अधिक कहानियाँ, और कई बाल साहित्य की पुस्तकें शामिल हैं। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं:
 * प्रथम प्रतिश्रुति (1964): यह उपन्यास बांग्ला साहित्य में स्त्री विमर्श का एक मील का पत्थर माना जाता है। इस कृति में मुख्य पात्र सत्यवती के माध्यम से आशा पूर्णा देवी ने 19वीं सदी के सामाजिक बंधनों और स्त्री की आत्म-चेतना का उत्कृष्ट चित्रण किया है।

 * सुबर्णलता (1967): यह उपन्यास "प्रथम प्रतिश्रुति" की अगली कड़ी है। इसमें सत्यवती की बेटी सुबर्णलता की कहानी है, जो अपनी माँ के विचारों को आगे बढ़ाती है और समाज में एक स्वतंत्र सोच रखने वाली स्त्री के रूप में सामने आती है।

 * बकुल कथा (1974): यह त्रयी की अंतिम कड़ी है, जिसमें सत्यवती की नातिन बकुल की जीवन यात्रा को दर्शाया गया है। बकुल एक आधुनिक लेखिका बनती है और स्त्री-सशक्तीकरण की प्रतीक बन जाती है।

 * बाल साहित्य: बच्चों के लिए भी उन्होंने कई कहानियाँ लिखीं, जिनमें "छोटोदेरेर भालोबाशा" और "गोपो गोपेर गल्पो" विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।

शैली और विषयवस्तु

आशा पूर्णा देवी की भाषा सहज, प्रवाहमयी और भावनाओं से परिपूर्ण थी। उनकी लेखन शैली यथार्थवाद और भावनात्मक मनोविश्लेषण का एक सुंदर मेल है। उनकी लेखनी में नारी का दर्द, उसका विद्रोह और उसकी आत्म-स्वीकृति का गहन चित्रण मिलता है। उन्होंने अपने पात्रों को केवल पीड़ित के रूप में नहीं, बल्कि प्रतिक्रिया और परिवर्तन की वाहिका के रूप में प्रस्तुत किया। उनके साहित्य के मुख्य विषय स्त्री मुक्ति, पारिवारिक संघर्ष, सामाजिक रूढ़ियाँ, मातृत्व और विवाह संस्था की आलोचना हैं।

सम्मान और पुरस्कार

आशा पूर्णा देवी को उनके विशिष्ट साहित्यिक योगदान के लिए कई राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इनमें से कुछ प्रमुख सम्मान इस प्रकार हैं:

 * ज्ञानपीठ पुरस्कार (1976) – उपन्यास "प्रथम प्रतिश्रुति" के लिए

 * पद्मश्री (1976) – भारत सरकार द्वारा

 * साहित्य अकादमी पुरस्कार (1976)

 * बंगला अकादमी पुरस्कार

 * डीलिट (D.Litt.) – कई विश्वविद्यालयों से

 * Desikottama – विश्वभारती विश्वविद्यालय द्वारा

नारीवाद और सामाजिक दृष्टिकोण

आशा पूर्णा देवी को भारतीय नारीवाद की अग्रदूत कहा जाता है। उन्होंने बिना किसी आक्रामकता के स्त्री की वेदना, असंतोष और सामाजिक प्रतिरोध को अपनी लेखनी में पिरोया। उनका नारी पात्र न केवल सामाजिक रूढ़ियों से जूझता है, बल्कि एक नई राह बनाने का साहस भी करता है।
वे मानती थीं:

"स्त्री कोई उपवन की शोभा मात्र नहीं, वह विचारशील, कर्मशील और निर्णय-योग्य सत्ता है।"


निधन

आशा पूर्णा देवी का निधन 13 जुलाई 1995 को कोलकाता में हुआ। उनकी मृत्यु के बाद बंगाल और पूरे भारत में साहित्यिक संसार ने एक मौन श्रद्धांजलि अर्पित की, लेकिन उनका साहित्य आज भी पाठकों के मन में जीवित है।

निष्कर्ष

आशा पूर्णा देवी केवल एक लेखिका नहीं थीं, वे एक युग की प्रवक्ता थीं। उनके लेखन ने बंगाली समाज की परंपराओं को चुनौती दी और एक नई चेतना का संचार किया। स्त्री की आत्म-स्वीकृति, स्वाभिमान और स्वतंत्रता की आवाज उनके साहित्य में इतनी सशक्त है कि वे आज भी प्रासंगिक हैं। वे उन विरल साहित्यिक प्रतिभाओं में से थीं, जिन्होंने बिना किसी औपचारिक शिक्षा के, केवल अपनी दृष्टि और संवेदना से भारतीय साहित्य को समृद्ध किया।

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