संजीव कुमार: अभिनय में जीवंतता का प्रतीक एक प्रतिभाशाली अभिनेता(9 जुलाई 1938 - 6 नवंबर 1985)


संजीव कुमार: अभिनय में जीवंतता का प्रतीक एक प्रतिभाशाली अभिनेता(9 जुलाई 1938 - 6 नवंबर 1985)

परिचय

संजीव कुमार, भारतीय सिनेमा के उन महान कलाकारों में से एक थे जिन्होंने अभिनय को केवल कला नहीं, बल्कि एक साधना का रूप दिया। वे अपने दौर के सबसे बहुआयामी और संजीदा अभिनेताओं में गिने जाते हैं। नायक हों या खलनायक, हास्य भूमिका हो या वृद्ध पात्र, हर किरदार को उन्होंने आत्मसात कर दर्शकों के हृदय में एक अमिट छाप छोड़ी। उनकी अभिनय शैली इतनी स्वाभाविक थी कि दर्शक उन्हें परदे पर नहीं, बल्कि वास्तविक जीवन में उन किरदारों को जीते हुए देखते थे।

प्रारंभिक जीवन और रंगमंच से जुड़ाव

संजीव कुमार का पूरा नाम हरीभाई जरीवाला था। उनका जन्म 9 जुलाई 1938 को गुजरात के सूरत शहर में एक मध्यमवर्गीय गुजराती परिवार में हुआ था। गुजराती मूल के होने के बावजूद, उन्होंने हिंदी सिनेमा में अद्वितीय प्रसिद्धि हासिल की। बचपन से ही उनका झुकाव नाट्यकला की ओर था, जिसने उन्हें अभिनय के प्रति आकर्षित किया।
संजीव कुमार ने अपने अभिनय करियर की शुरुआत रंगमंच से की। वे मुंबई के इंडियन नेशनल थिएटर से जुड़े और यहीं से उनकी अभिनय यात्रा प्रारंभ हुई। थिएटर के अनुभव ने उनके अभिनय की नींव रखी, जहाँ उन्होंने विभिन्न प्रकार के किरदारों को निभाने का अभ्यास किया और अपनी कला को निखारा।

फिल्मी सफर की शुरुआत और उपलब्धियाँ

संजीव कुमार का पहला फ़िल्मी अभिनय 1960 की फिल्म 'हम हिंदुस्तानी' में एक छोटे से रोल से हुआ। हालाँकि, उन्हें असली पहचान 1965 में फिल्म 'निशान' में मुख्य भूमिका से मिली। इस फिल्म के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और एक के बाद एक यादगार भूमिकाएँ निभाते चले गए।

विविधता में महारत

संजीव कुमार ऐसे कलाकार थे जो अपनी उम्र से कहीं अधिक उम्र के किरदारों को भी जीवंतता के साथ निभा सकते थे। उनकी यह क्षमता अद्भुत थी। 22 वर्ष की आयु में उन्होंने नाटक "अंधा युग" में वृद्ध धृतराष्ट्र का पात्र इतनी कुशलता से निभाया कि लोग अचंभित रह गए। इसी तरह, 35 वर्ष की आयु में उन्होंने फिल्म "शोले" (1975) में ठाकुर बलदेव सिंह जैसे उम्रदराज और दमदार किरदार को ऐतिहासिक बना दिया, जो आज भी भारतीय सिनेमा के सबसे प्रतिष्ठित किरदारों में से एक है।

मुख्य फिल्मों की सूची

उनके फ़िल्मी करियर में कई मील के पत्थर साबित हुईं, जिनमें से कुछ प्रमुख फिल्में इस प्रकार हैं:

 * कोशिश (1972): एक मूक-बधिर व्यक्ति की भूमिका, जो उनके अभिनय जीवन की सर्वश्रेष्ठ उपलब्धियों में से एक मानी जाती है। इसमें उन्होंने बिना संवाद के सिर्फ अपनी आँखों और हाव-भाव से पूरी कहानी कह दी।
 * शोले (1975): ठाकुर का उनका दमदार चरित्र आज भी सिने प्रेमियों के बीच लोकप्रिय है।
 * अंदाज़ (1971): इस रोमांटिक ड्रामा में संजीव की गंभीर भूमिका को खूब सराहा गया।
 * अनामिका (1973): रहस्यमय रोमांच से भरपूर यह भूमिका भी दर्शकों को पसंद आई।
 * नया दिन नई रात (1974): इस फिल्म में उन्होंने एक साथ 9 किरदार निभाए, जो उनकी अभिनय क्षमता का अद्भुत प्रमाण था।
 * अन्य उल्लेखनीय फ़िल्में: त्रिशूल, खिलौना, मनचली, आंधी, परिचय, मौसम, सिलसिला आदि।

पुरस्कार एवं सम्मान

संजीव कुमार को उनके उत्कृष्ट अभिनय के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्होंने कई बार राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार और फिल्मफेयर अवॉर्ड जीते:
 * राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार (सर्वश्रेष्ठ अभिनेता):
   * दस्तक (1970)
   * कोशिश (1972)
 * फिल्मफेयर अवॉर्ड:
   * खिलौना (1970) - सर्वश्रेष्ठ अभिनेता
   * आंधी (1975) - सर्वश्रेष्ठ अभिनेता
   * शोले, त्रिशूल और कई अन्य फिल्मों के लिए भी उन्हें नामांकन और पुरस्कार प्राप्त हुए।

अद्भुत अभिनय शैली

संजीव कुमार की सबसे बड़ी विशेषता थी – स्वाभाविक अभिनय। वे अपने संवादों को धीमे, गंभीर स्वर में कहकर भी दर्शकों को भीतर तक झकझोर देते थे। उनके लिए अभिनय एक कला से बढ़कर था; यह एक भावना थी जिसे वे जीते थे। उन्होंने कभी "हीरोइज्म" या ग्लैमर को प्राथमिकता नहीं दी; उनके लिए अभिनय ही सर्वोच्च था। उनकी आँखों की अभिव्यक्ति, शांत मुद्रा और गहरे भाव दर्शकों को भीतर तक छू लेते थे, जिससे वे किरदारों से भावनात्मक रूप से जुड़ पाते थे।

निजी जीवन और असमय मृत्यु

संजीव कुमार ने कभी विवाह नहीं किया। ऐसा कहा जाता है कि अभिनेत्री हेमा मालिनी से उनका एकतरफा प्रेम था, परन्तु उनका यह संबंध पूर्ण रूप नहीं ले पाया। वे बेहद संवेदनशील, अकेलेपन में जीने वाले और साहित्य-संगीत प्रेमी व्यक्ति थे। उनका निजी जीवन उनके अभिनय करियर से बिल्कुल विपरीत, शांत और निजी था।
संजीव कुमार को हृदय संबंधी समस्याएँ थीं और कम उम्र में ही वे इससे ग्रसित हो गए थे। 6 नवंबर 1985 को मात्र 47 वर्ष की आयु में उनका देहांत हो गया। यह भारतीय सिनेमा के लिए एक अपूरणीय क्षति थी। उनकी कई फिल्में उनकी मृत्यु के बाद रिलीज हुईं, जैसे प्रोफेसर की पड़ोसन (1993), जो उनकी प्रतिभा का अंतिम प्रदर्शन थीं।

संजीव कुमार की विरासत

संजीव कुमार भले ही भौतिक रूप से अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके अभिनय की छाप आज भी सिनेप्रेमियों के मन में जीवित है। उन्होंने साबित किया कि अभिनय में 'हीरो' होना जरूरी नहीं, 'कला' होना जरूरी है। उनकी तुलना अक्सर अंतरराष्ट्रीय स्तर के अभिनेताओं जैसे लॉरेंस ओलिवियर या डस्टिन हॉफमैन से की जाती है, जो उनकी अभिनय क्षमता का प्रमाण है। उनकी विरासत हमें सिखाती है कि कला की कोई सीमा नहीं होती और एक सच्चा कलाकार हर किरदार में जान डाल सकता है।

निष्कर्ष

संजीव कुमार हिंदी सिनेमा के ऐसे रत्न थे जिन्होंने अभिनय को गरिमा, गहराई और गंभीरता प्रदान की। उनकी जीवन यात्रा सिखाती है कि सादगी, संवेदनशीलता और समर्पण से कला को अमर बनाया जा सकता है। आज जब भी "संजीव कुमार" का नाम लिया जाता है, तो हमें उनकी उत्कृष्ट फिल्मों, सहज अभिनय और मानवीय भावनाओं से जुड़ी यादें साथ-साथ याद आती हैं।
 "संजीव कुमार अभिनय नहीं करते थे, वे किरदारों में साँस लेते थे।"
 वे भारतीय सिनेमा की आत्मा में बसते हैं, और उनका योगदान हमेशा स्मरणीय रहेगा।

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