मदर टेरेसा: करुणा और सेवा की जीवंत मूर्ति(26 अगस्त, 1910- 5 सितंबर, 1997 )


मदर टेरेसा: करुणा और सेवा की जीवंत मूर्ति(26 अगस्त, 1910- 5 सितंबर, 1997 )

मानव इतिहास में कुछ ऐसे अद्भुत लोग हुए हैं जिन्होंने अपना पूरा जीवन दूसरों की सेवा और पीड़ा को दूर करने के लिए समर्पित कर दिया। इन्हीं महान हस्तियों में से एक हैं मदर टेरेसा, जिनका नाम करुणा और निस्वार्थ सेवा का पर्याय बन गया है। भारत की भूमि ने उन्हें प्यार से 'मदर' कहकर पुकारा, और पूरी दुनिया ने उन्हें 'संत' का दर्जा दिया।

प्रारंभिक जीवन और भारत आगमन

मदर टेरेसा का वास्तविक नाम एग्नेस गोंझा बोयाजिजू था। उनका जन्म 26 अगस्त, 1910 को मैसिडोनिया के स्कोप्जे शहर में हुआ था। बचपन से ही उनमें धार्मिकता और जरूरतमंदों की मदद करने की गहरी भावना थी। 18 साल की उम्र में उन्होंने अपने परिवार को छोड़कर आयरलैंड के 'सिस्टर्स ऑफ लोरेटो' में प्रवेश लिया, जहाँ उन्होंने नन बनकर अपना नाम टेरेसा रखा। 1929 में वे भारत आईं और कोलकाता के सेंट मैरी स्कूल में पढ़ाने लगीं। यहाँ रहते हुए उन्होंने गरीबी, भुखमरी और बीमारियों को बहुत करीब से देखा, जिसने उनके दिल को हिला दिया। 1946 में दार्जिलिंग की यात्रा के दौरान उन्हें एक दिव्य अनुभूति हुई, जिसे उन्होंने “कॉल विदिन अ कॉल” कहा। इस क्षण ने उनके जीवन की दिशा बदल दी और उन्होंने अपना जीवन गरीबों और असहायों की सेवा के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया।

मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना

1948 में मदर टेरेसा ने लोरेटो कॉन्वेंट को छोड़कर पूरी तरह से सेवा के काम में खुद को झोंक दिया। 1950 में, उन्होंने कोलकाता में 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना की। इस संस्था का मुख्य उद्देश्य था:

 गरीबों, बीमारों और अनाथों की सेवा करना।

  सड़कों पर मर रहे लोगों को सम्मानजनक अंतिम समय देना।

 कुष्ठ रोगियों और बेघर बच्चों की देखभाल करना।

यह संस्था शुरुआत में भले ही छोटी थी, लेकिन जल्द ही इसके सेवा कार्यों की गूंज पूरे भारत और फिर दुनिया भर में फैल गई।

सेवा के कार्य और सम्मान

मदर टेरेसा ने कोलकाता में 'निर्मल हृदय' आश्रम खोला, जहाँ मरणासन्न लोगों को आखिरी समय में प्यार और सम्मान दिया जाता था। उन्होंने अनाथ बच्चों के लिए 'शिशु भवन' की स्थापना की और कुष्ठ रोगियों के लिए भी विशेष अस्पताल और आश्रय गृह बनवाए। उनके लिए मानव सेवा ही सबसे बड़ा धर्म था। वे कभी भी धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से काम नहीं करती थीं, बल्कि उनका एकमात्र लक्ष्य पीड़ित मानवता को प्रेम और करुणा देना था।

उनके इस महान योगदान के लिए उन्हें दुनिया भर से कई सम्मान मिले, जिनमें से प्रमुख हैं:

 नोबेल शांति पुरस्कार (1979)
 भारत रत्न (1980)
 पद्मश्री (1962)
वेटिकन ने 2016 में उन्हें 'संत टेरेसा ऑफ कोलकाता' की उपाधि से सम्मानित किया।

एक प्रेरणादायक व्यक्तित्व

मदर टेरेसा का जीवन हमें सिखाता है कि सच्चा धर्म केवल मानवता की सेवा है। उनका मानना था, “अगर आप सौ लोगों को भोजन नहीं करा सकते, तो कम-से-कम एक को ही कराइए।” उनके लिए कोई जाति, धर्म या सीमा मायने नहीं रखती थी, वे केवल इंसानियत को सर्वोपरि मानती थीं।अत्यधिक परिश्रम और बिगड़ते स्वास्थ्य के बावजूद, उन्होंने जीवन के अंतिम क्षण तक सेवा कार्य जारी रखा। 5 सितंबर, 1997 को उनका निधन हो गया, और उनके अंतिम संस्कार में पूरी दुनिया से नेता और लाखों लोग शामिल हुए।
आज भी, मदर टेरेसा की विरासत 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' के रूप में जीवित है, जो पूरी दुनिया में निस्वार्थ भाव से सेवा कर रही है। उनका जीवन इस बात का प्रमाण है कि एक व्यक्ति का समर्पण और करुणा पूरी मानवता के लिए प्रेरणा बन सकती है। यही कारण है कि उन्हें न केवल भारत, बल्कि पूरी दुनिया 'करुणा की माता' मानती है।

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