कवि शैलेन्द्र: गीतों के माध्यम से जीवन की कहानी कहने वाला रचनाकार (30 अगस्त, 1923- 14 दिसंबर, 1966 )
भूमिका
भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग में कई ऐसे सितारे हुए जिन्होंने अपनी कला से हिंदी फिल्मों को एक नया आयाम दिया। इन्हीं में से एक थे शैलेन्द्र, एक ऐसा नाम जो आज भी हर उस दिल में गूंजता है जिसने कभी हिंदी सिनेमा के अमर गीतों को सुना है। वे सिर्फ़ एक गीतकार नहीं थे, बल्कि एक कवि, एक दार्शनिक और एक ऐसे रचनाकार थे जिन्होंने अपनी सरल भाषा से आम आदमी के दुख-सुख, आशा-निराशा और सपनों को शब्दों में ढालकर अमर कर दिया।
संघर्षपूर्ण जीवन से साहित्यिक यात्रा तक
शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र का जन्म 30 अगस्त, 1923 को रावलपिंडी (अब पाकिस्तान में) में हुआ था। उनके बचपन का अधिकांश हिस्सा संघर्ष और गरीबी में बीता, जिसका गहरा प्रभाव उनके लेखन पर पड़ा। वे हमेशा से ही समाज के प्रति संवेदनशील थे और इसी वजह से प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े। उनकी कविताएँ आम आदमी की पीड़ा, सामाजिक असमानता और जीवन की गहरी सच्चाइयों को दर्शाती थीं। वे मानते थे कि साहित्य का उद्देश्य सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि समाज में बदलाव लाना है।
राज कपूर से मुलाकात और फ़िल्मी सफ़र का आरंभ
शैलेन्द्र का फ़िल्मी सफ़र एक संयोग की देन था। 1949 में कवि सम्मेलन के दौरान महान फिल्मकार राज कपूर ने उनकी कविताओं को सुना और उनसे अपनी फिल्म "बरसात" के लिए गीत लिखने का आग्रह किया। शुरू में तो शैलेन्द्र ने इनकार कर दिया, लेकिन आर्थिक तंगी के कारण उन्हें यह प्रस्ताव स्वीकार करना पड़ा। यहीं से हिंदी सिनेमा को एक ऐसा गीतकार मिला जिसने शब्दों की जादूगरी से उसे हमेशा के लिए बदल दिया।
शैलेन्द्र और राज कपूर की जोड़ी ने संगीतकार शंकर-जयकिशन के साथ मिलकर हिंदी सिनेमा को एक से बढ़कर एक क्लासिक गीत दिए। उनके गीतों में वह जादू था जो सीधे दिल में उतर जाता था। 'आवारा हूँ', 'जीना यहाँ मरना यहाँ' और 'सब कुछ सीखा हमने' जैसे गीतों ने उन्हें 'गीतों का आम आदमी' बना दिया।
गीतों की आत्मा और "तीसरी कसम" का निर्माण
शैलेन्द्र के गीतों की सबसे बड़ी खासियत उनकी सादगी थी। वे दिखावटी शब्दों का प्रयोग नहीं करते थे, बल्कि रोजमर्रा की बोलचाल की भाषा में गहरी भावनाओं और दर्शन को पिरो देते थे। उनके गीतों में आशा और उदासी का एक अद्भुत मिश्रण देखने को मिलता है। 'दिल तड़प-तड़प के कह रहा है' में प्रेम की व्याकुलता, तो वहीं 'सजन रे झूठ मत बोलो' में जीवन का गहरा दर्शन झलकता है।
उन्होंने सिर्फ़ गीत लेखन ही नहीं किया, बल्कि फिल्म निर्माण में भी हाथ आजमाया। 1966 में उन्होंने महान लेखक फणीश्वरनाथ 'रेणु' की कहानी पर आधारित फिल्म "तीसरी कसम" का निर्माण किया। यह एक कलात्मक और संवेदनशील फिल्म थी, जिसे बाद में भारतीय सिनेमा की सबसे बेहतरीन फिल्मों में गिना गया। हालाँकि, तात्कालिक रूप से यह फिल्म व्यावसायिक रूप से सफल नहीं हो पाई और इसके कारण शैलेन्द्र को भारी आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा। इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था, लेकिन इसके निर्माण ने शैलेन्द्र को मानसिक और आर्थिक रूप से तोड़ दिया।
विरासत और निष्कर्ष
शैलेन्द्र का असामयिक निधन 14 दिसंबर, 1966 को मात्र 43 वर्ष की आयु में हो गया। उनका निधन हिंदी साहित्य और फिल्म जगत के लिए एक बड़ी क्षति थी। उन्होंने एक गीतकार को सिर्फ़ शब्दों का जादूगर नहीं, बल्कि एक कवि के रूप में स्थापित किया। उनके गीत आज भी लोगों की भावनाओं को व्यक्त करने का माध्यम हैं। वे हिंदी सिनेमा के ऐसे रचनाकार थे, जिनकी कलम ने दिल की गहराइयों से निकलकर हर आम इंसान की कहानी लिखी। उनकी विरासत उनके अमर गीतों के रूप में हमेशा जीवित रहेगी।
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