सरदार हुकुम सिंह: भारतीय लोकतंत्र के एक प्रेरणादायक स्तंभ(30 अगस्त, 1895 - 27 मई, 1983 )


सरदार हुकुम सिंह: भारतीय लोकतंत्र के एक प्रेरणादायक स्तंभ(30 अगस्त, 1895 - 27 मई, 1983 )

भूमिका 

भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में ऐसे कई महान व्यक्तित्व हुए हैं, जिन्होंने अपनी निष्ठा, बुद्धिमत्ता और समर्पण से देश की दिशा को आकार दिया। इन्हीं में से एक थे सरदार हुकुम सिंह। एक कुशल वकील, निडर स्वतंत्रता सेनानी और एक असाधारण राजनेता, उनका जीवन भारतीय राजनीति और संसदीय परंपराओं के लिए एक अमूल्य उदाहरण है। वे न सिर्फ़ एक प्रभावी वक्ता थे, बल्कि एक ऐसे नेता थे जिन्होंने हमेशा दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रहित को सर्वोपरि रखा।

प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका

सरदार हुकुम सिंह का जन्म 30 अगस्त, 1895 को तत्कालीन पंजाब के मोंटगोमरी जिले (जो अब पाकिस्तान में है) में हुआ था। उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई, जहाँ से उन्होंने कानून की डिग्री प्राप्त की और एक सफल वकील के रूप में अपना करियर शुरू किया। हालाँकि, उनका दिल देश की आज़ादी के लिए धड़कता था। वे जल्द ही अकाली आंदोलन में शामिल हो गए, जो गुरुद्वारों को ब्रिटिश नियंत्रण से मुक्त कराने के लिए चलाया गया था। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन (1942) में भी सक्रिय भूमिका निभाई, जिससे यह साबित हुआ कि वे एक सच्चे और निडर राष्ट्रवादी थे।

संसदीय यात्रा और लोकसभा अध्यक्ष के रूप में योगदान

आज़ादी के बाद, सरदार हुकुम सिंह की राजनीतिक यात्रा ने एक नया मोड़ लिया। उन्हें पंजाब विधानसभा के लिए चुना गया और फिर 1952 में वे पहली बार भारतीय संसद (लोकसभा) के सदस्य बने। उनकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका तब शुरू हुई जब वे 1962 में तीसरी लोकसभा के अध्यक्ष बने। इस पद पर रहते हुए, उन्होंने भारतीय संसदीय प्रणाली को एक नई गरिमा प्रदान की।
उनकी निष्पक्षता और न्यायप्रियता की आज भी मिसाल दी जाती है। उन्होंने लोकसभा की कार्यवाही को अधिक अनुशासित, व्यवस्थित और गरिमापूर्ण बनाने के लिए कड़े कदम उठाए। वे यह सुनिश्चित करते थे कि सदन में सभी सदस्यों को अपनी बात रखने का समान अवसर मिले, चाहे वे सत्ता पक्ष के हों या विपक्ष के। उनके नेतृत्व में, संसदीय बहसें अधिक सार्थक और रचनात्मक हुईं, जिससे भारतीय लोकतंत्र की नींव और मजबूत हुई।

राज्य पुनर्गठन और दूरदर्शी नेतृत्व

सरदार हुकुम सिंह का एक और महत्वपूर्ण योगदान पंजाब पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष के रूप में था। यह एक बेहद संवेदनशील और जटिल कार्य था, जिसमें पंजाब को भाषाई आधार पर पुनर्गठित करना था। 1966 में उनकी अध्यक्षता में ही पंजाब का विभाजन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप हरियाणा और हिमाचल प्रदेश जैसे नए राज्य अस्तित्व में आए। यह उनके संतुलित और दूरदर्शी दृष्टिकोण का परिणाम था कि इस संवेदनशील प्रक्रिया को बिना किसी बड़े टकराव के सफलतापूर्वक पूरा किया जा सका।

विरासत और अंतिम जीवन

संसदीय जीवन के बाद, सरदार हुकुम सिंह ने 1967 से 1972 तक राजस्थान के राज्यपाल के रूप में भी सेवा की। उन्होंने हर पद पर प्रशासनिक ईमानदारी और लोकतांत्रिक मूल्यों को बढ़ावा दिया। 27 मई, 1983 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनका जीवन और कार्य भारतीय राजनीति के लिए हमेशा एक प्रेरणा बने रहेंगे।
सरदार हुकुम सिंह का जीवन हमें यह सिखाता है कि एक सच्चा नेता वह होता है जो व्यक्तिगत लाभ से ऊपर उठकर राष्ट्र और उसके लोगों के लिए काम करता है। उनकी निष्पक्षता, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उनका अटूट विश्वास और उनका दूरदर्शी नेतृत्व आज भी भारतीय लोकतंत्र को दिशा दिखाता है।

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