कनकलता बरूआ:असम की अमर शहीद बालिका(22 दिसंबर 1924 - 20 सितंबर 1942 )
भूमिका
भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल दिल्ली, मुंबई या कोलकाता जैसे बड़े शहरों तक सीमित नहीं था, बल्कि इसकी गूंज देश के दूरदराज के गांवों और कस्बों तक पहुंच चुकी थी। असम जैसे पूर्वोत्तर क्षेत्र में भी इस आंदोलन ने एक नई चेतना जगाई। यहां से अनेक वीर-वीरांगनाओं ने स्वतंत्रता की लड़ाई में भाग लिया, और इन्हीं में से एक नाम है- कनकलता बरूआ, जो महज 17 वर्ष की आयु में भारत माता के लिए बलिदान हो गईं। उनका जीवन संघर्ष और साहस से भरा हुआ था, जिसने उन्हें असम की "झांसी की रानी" का दर्जा दिलाया।
प्रारंभिक जीवन और स्वतंत्रता संग्राम की पृष्ठभूमि
कनकलता बरूआ का जन्म 22 दिसंबर 1924 को असम के सोनितपुर जिले के गोहपुर कस्बे में एक साधारण किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम कृष्णाकांत बरूआ और माता का नाम कांति बरूआ था। बचपन से ही कनकलता में आत्मविश्वास, परिश्रम और साहस की झलक दिखाई देती थी। दुर्भाग्यवश, जब वे छोटी ही थीं, तब उनके माता-पिता का निधन हो गया, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उन्होंने अपनी पढ़ाई जारी रखी और समाज में सक्रिय भूमिका निभाने लगीं।
जब महात्मा गांधी ने 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन शुरू किया, तो इसकी गूंज असम तक पहुंची। असम में यह आंदोलन मुख्य रूप से ग्रामीण क्षेत्रों और युवाओं के बीच व्यापक रूप से फैल गया। 'भारत छोड़ो' आंदोलन का उद्देश्य अंग्रेजों को यह संदेश देना था कि अब भारत पर उनका शासन अस्वीकार्य है। असम के गांवों में नौजवानों ने अंग्रेजों के खिलाफ आवाज बुलंद की। इन आंदोलनों में छात्र-छात्राओं ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया, और इन्हीं में कनकलता बरूआ सबसे आगे थीं।
मृत्युबहिनी दल और वीरगति
असम के स्वतंत्रता सेनानियों ने एक विशेष दल बनाया था, जिसे 'मृत्युबहिनी दल' (Death Squad) कहा जाता था। इस दल में वे नौजवान शामिल होते थे, जो देश के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने को तैयार रहते थे। कनकलता भी इसी दल की एक सक्रिय सदस्य बनीं। उन्होंने शपथ ली थी कि वे भारत माता की सेवा के लिए किसी भी हद तक जाएंगी, चाहे उसके लिए अपने प्राण क्यों न देने पड़ें।
20 सितंबर 1942 का दिन असम के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। उस दिन मृत्युबहिनी दल ने निर्णय लिया कि वे अंग्रेजों के शासन के प्रतीक, गोहपुर पुलिस स्टेशन, पर राष्ट्रीय ध्वज फहराएंगे। इस दल की अगुवाई कनकलता बरूआ ने करने का निश्चय किया। उन्होंने हाथ में तिरंगा लिया और अपने साथियों के साथ नारे लगाते हुए पुलिस स्टेशन की ओर बढ़ीं— "वंदे मातरम्! भारत छोड़ो! अंग्रेज भारत छोड़ो!"
जब कनकलता और उनके साथी पुलिस स्टेशन पहुंचे, तो अंग्रेज पुलिस ने उन्हें रोका और चेतावनी दी कि यदि वे आगे बढ़े तो गोली चला दी जाएगी। लेकिन, कनकलता ने साहस के साथ घोषणा की— "तिरंगा मेरे हाथ से तभी गिरेगा, जब मैं अपने प्राण त्याग दूंगी।" वे तिरंगा थामे निडरता से आगे बढ़ीं। तभी पुलिस ने गोली चला दी। कनकलता बरूआ वहीं वीरगति को प्राप्त हुईं। उनके साथ ही एक और स्वतंत्रता सेनानी मुकुंद काकोती भी शहीद हो गए। उस समय उनकी आयु मात्र 17 वर्ष थी।
योगदान और ऐतिहासिक महत्व
कनकलता बरूआ का बलिदान असम की धरती ही नहीं, बल्कि पूरे भारत के लिए एक प्रेरणा बन गया। असम की जनता उन्हें "वीरांगना" और "गोहपुर की बेटी" कहकर सम्मानित करती है। उनके सम्मान में, गुवाहाटी में कनकलता उद्यान बनाया गया है और भारतीय तटरक्षक बल ने अपने एक जहाज का नाम “ICGS कनकलता बरूआ” रखा है।
कनकलता बरूआ का बलिदान यह दर्शाता है कि भारत की स्वतंत्रता केवल बुजुर्ग नेताओं या पुरुष सेनानियों की वजह से नहीं मिली, बल्कि किशोरों और युवाओं ने भी अपने प्राणों की आहुति दी। वे असम की झांसी की रानी के रूप में देखी जाती हैं। उन्होंने यह साबित कर दिया कि मातृभूमि के लिए समर्पण की कोई आयु नहीं होती। उनका जीवन और बलिदान हमें यह सिखाता है कि साहस और देशभक्ति उम्र से नहीं, बल्कि मन की दृढ़ता से पैदा होती है। उनकी गाथा असम की माटी में गूंजती है और भारत माता के वीर इतिहास में सुनहरे अक्षरों से अंकित है।

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