भीकाजी कामा: स्वाधीनता की मशाल(24 सितंबर 1861- 13 अगस्त 1936 )
भूमिका
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में, जहाँ अनगिनत वीरों ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया, वहीं कुछ ऐसे नाम भी हैं जिन्होंने देश की सीमाओं के बाहर भी क्रांति की लौ जलाए रखी। इन नामों में एक बेहद ख़ास नाम है – भीकाजी कामा। उन्हें 'मदर ऑफ इंडियन रेवोल्यूशन' के रूप में जाना जाता है। उनका जीवन, साहस और त्याग की एक ऐसी मिसाल है जिसने न केवल भारत में बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी देश की आजादी की अलख जगाई।
एक अमीर पारसी परिवार से देशभक्त क्रांतिकारी तक का सफर
भीकाजी कामा का जन्म 24 सितंबर 1861 को बंबई (अब मुंबई) के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ था। उनके पिता, सोराबजी पटेल, एक जाने-माने व्यापारी और समाज सेवक थे। अपनी शुरुआती शिक्षा के दौरान ही भीकाजी ने अपनी बुद्धिमत्ता और साहस का परिचय दिया। उनका विवाह एक प्रसिद्ध ब्रिटिश समर्थक वकील रुस्तम कामा से हुआ, लेकिन विचारों में मतभेद के चलते उनका वैवाहिक जीवन ज़्यादा सुखद नहीं रहा। भीकाजी का मन हमेशा से ही देश की गुलामी के प्रति विद्रोह से भरा था और इसी कारण उन्होंने अपना जीवन स्वतंत्रता आंदोलन को समर्पित करने का निर्णय लिया।
विदेश में क्रांति की गूंज
साल 1902 में, स्वास्थ्य कारणों से भीकाजी इंग्लैंड गईं। यहीं उनकी मुलाकात दादाभाई नौरोजी और श्यामजी कृष्ण वर्मा जैसे महान राष्ट्रवादियों से हुई। इन देशभक्तों के संपर्क में आने के बाद, भीकाजी ने खुद को पूरी तरह से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित कर दिया। लंदन में रहते हुए उन्होंने ब्रिटिश नीतियों का कड़ा विरोध किया, जिसके कारण जल्द ही वे ब्रिटिश सरकार की नज़रों में आ गईं। सरकार के बढ़ते दबाव के कारण, उन्हें इंग्लैंड छोड़ना पड़ा और वे पेरिस चली गईं। पेरिस में भी उन्होंने अपनी क्रांतिकारी गतिविधियों को और भी मज़बूती दी।
स्टुटगार्ट सम्मेलन: जहाँ फहराया गया भारत का पहला झंडा
भीकाजी कामा का सबसे महत्वपूर्ण योगदान 1907 में जर्मनी के स्टुटगार्ट में आयोजित अंतरराष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में सामने आया। इस सम्मेलन में, उन्होंने दुनिया के सामने एक ऐसा ध्वज फहराया जो भारत की स्वतंत्रता का प्रतीक था। इस तिरंगे झंडे में ऊपर की हरी पट्टी पर वंदे मातरम् लिखा था, बीच की लाल पट्टी पर सूरज और चाँद बने थे, और नीचे पीली पट्टी थी।
इस ऐतिहासिक क्षण में, उन्होंने पूरी दुनिया के सामने भारत की गुलामी और ब्रिटिश हुकूमत के शोषण की कहानी रखी। उन्होंने गरजते हुए कहा, "भारत गुलाम है, और हम उसकी स्वतंत्रता की मांग करते हैं।" उनका यह साहसिक कार्य भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक मील का पत्थर साबित हुआ, जिसने दुनिया को भारत के संघर्ष से परिचित कराया।
संघर्ष और त्याग का जीवन
पेरिस में रहते हुए भीकाजी ने भारतीय क्रांतिकारियों को हर संभव मदद दी। उन्होंने 'वंदे मातरम्' और 'टेल ऑफ इंडिया' जैसी क्रांतिकारी पत्रिकाओं का प्रकाशन और वितरण किया, जिससे भारत के युवाओं में क्रांति की भावना जागृत हुई। उनका घर भारतीय क्रांतिकारियों के लिए एक सुरक्षित ठिकाना बन गया था।
ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत लौटने से रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया। लगभग तीन दशकों तक भीकाजी विदेश में ही रहीं और अपने देश की स्वतंत्रता के लिए निरंतर संघर्ष करती रहीं। अंत में, 1935 में, बहुत खराब स्वास्थ्य के चलते ब्रिटिश सरकार ने उन्हें भारत लौटने की अनुमति दी। 13 अगस्त 1936 को, मुंबई में इस महान वीरांगना ने अंतिम सांस ली।
एक अमर विरासत
भीकाजी कामा ने यह साबित कर दिया कि एक महिला केवल परिवार की संरक्षक ही नहीं, बल्कि राष्ट्र की स्वतंत्रता की सबसे बड़ी योद्धा भी हो सकती है। वे पहली ऐसी भारतीय महिला थीं, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय मंच पर भारत की स्वतंत्रता की मांग उठाई और तिरंगा फहराया। उनका जीवन त्याग, साहस, और मातृभूमि के प्रति समर्पण की एक अद्भुत मिसाल है, जो आज भी हर भारतीय को प्रेरित करती है। भीकाजी कामा का नाम भारतीय इतिहास के सुनहरे पन्नों में हमेशा ज़िंदा रहेगा।
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