मजरूह सुल्तानपुरी: गीतों का शहंशाह और प्रगतिशील शायरी का पैरोकार( 1 अक्टूबर 1919- 24 मई 2000 )

मजरूह सुल्तानपुरी: गीतों का शहंशाह और प्रगतिशील शायरी का पैरोकार( 1 अक्टूबर 1919- 24 मई 2000 )

मजरूह सुल्तानपुरी (Majrooh Sultanpuri), जिनका वास्तविक नाम असरार-उल-हसन खान था, उर्दू शायरी और हिंदी सिनेमा के गीत-संगीत के आकाश के एक ऐसे सितारे थे, जिन्होंने अपनी कलम से प्रेम, संघर्ष और जीवन के हर रंग को गहराई और सादगी से उकेरा। वह न केवल हिंदी फिल्मों के पहले गीतकार थे, जिन्हें दादा साहब फाल्के पुरस्कार से नवाजा गया, बल्कि बीसवीं सदी के प्रगतिशील लेखक आंदोलन के एक महान शायर भी थे।

प्रारंभिक जीवन और हकीम से शायर बनने का सफर

मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा मदरसे में हुई, जहाँ उन्होंने उर्दू और फारसी में महारत हासिल की। पारंपरिक शिक्षा के बाद, उन्होंने लखनऊ के तकमील-उत-तिब कॉलेज से यूनानी चिकित्सा पद्धति की पढ़ाई पूरी की और एक हकीम (वैद्य) के रूप में काम करना शुरू किया। यहीं उन्होंने अपना उपनाम 'मजरूह' (जिसका अर्थ है 'ज़ख्मी' या 'घायल') अपनाया, जिसने उनके दिल के दर्द और भावुकता को एक पहचान दी।
हालांकि, उनके दिल में शायरी का जुनून हकीमी से कहीं बड़ा था। 1935 में, सुल्तानपुर के एक मुशायरे में उन्होंने अपनी पहली गज़ल पढ़ी, जिसे दर्शकों ने बहुत सराहा। यहीं से उन्होंने चिकित्सा छोड़ पूरी तरह से शायरी को समर्पित होने का फैसला किया। प्रख्यात शायर जिगर मुरादाबादी ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उन्हें अपना शिष्य बना लिया।

शायरी और प्रगतिशील विचारधारा

मजरूह सुल्तानपुरी अपनी शायरी में सामाजिक सरोकार और प्रगतिशील विचारधारा को प्रमुखता देते थे। वह उन शायरों में से थे, जिन्होंने गज़ल को केवल प्रेम और इश्क़ तक सीमित न रखकर, उसमें राजनीतिक और सामाजिक चेतना का समावेश किया। उनकी कविताएं जनसाधारण के दुखों, संघर्षों और क्रांति की भावना को दर्शाती थीं।
प्रगतिशील विचारधारा के कारण उन्हें अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। जवाहरलाल नेहरू की नीतियों के खिलाफ एक जोशीली कविता लिखने के कारण उन्हें 1949 में लगभग सवा साल जेल में भी रहना पड़ा। उनकी मशहूर पंक्तियाँ उनकी इसी क्रांतिकारी और जुझारू भावना को दर्शाती हैं:
 "मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर,
 लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया।"

हिंदी सिनेमा में स्वर्णिम योगदान

मजरूह सुल्तानपुरी का फिल्म सफर 1945 में शुरू हुआ, जब जिगर मुरादाबादी उन्हें बंबई (मुंबई) लेकर आए और उनकी मुलाकात उस समय के मशहूर फिल्म निर्देशक ए. आर. कारदार से हुई।
 डेब्यू: उन्होंने फिल्म 'शाहजहाँ' (1946) के लिए अपना पहला गीत "ग़म दिए मुस्तक़िल..." लिखा, जिसे के.एल. सहगल ने गाया।
 
दौर की पहचान: उनका फिल्मी करियर लगभग छह दशकों तक फैला रहा, जिसमें उन्होंने नौशाद से लेकर आर. डी. बर्मन, राजेश रोशन और जतिन-ललित तक, हर पीढ़ी के संगीतकारों के साथ काम किया।

 गीतों में विविधता: उनकी सबसे बड़ी खासियत यह थी कि उन्होंने हर तरह के गीत लिखे—भावुक गज़लों से लेकर शरारती, मस्ती भरे और रोमांटिक-कॉमेडी युगल गीत।

 कालजयी गज़लें: 'हम बेखुदी में तुमको पुकारे चले गए'
  
रोमांटिक गीत: 'चाहूँगा मैं तुझे साँझ सवेरे' (जिसके लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर सर्वश्रेष्ठ गीतकार पुरस्कार मिला)

कैबरे और फ़ास्ट: 'पिया तू अब तो आजा', 'ओ मेरे सोना रे सोना'

 नए दौर के हिट: 'पहला नशा'

अपने 55 साल से अधिक के करियर में, उन्होंने लगभग 350 फिल्मों के लिए 4000 से अधिक गीत लिखे। उनकी लोकप्रियता और योगदान को देखते हुए 1993 में उन्हें भारतीय सिनेमा के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। वह यह सम्मान पाने वाले पहले गीतकार थे।

निष्कर्ष

मजरूह सुल्तानपुरी की शख्सियत में एक प्रगतिशील शायर और एक सफल फिल्मी गीतकार का अद्भुत संगम था। उन्होंने हिंदी सिनेमा के गीतों को साहित्यिक गरिमा प्रदान की और आम बोलचाल की भाषा को शायरी के मिठास से नवाजा। 24 मई 2000 को उनका निधन हो गया, लेकिन उनके लिखे गीत और शेर आज भी हर दिल में ज़िंदा हैं, जो उन्हें गीतों का शहंशाह और उर्दू शायरी की एक अमर आवाज़ बनाते हैं।

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