बिरसा मुंडा: जनजातीय चेतना और स्वतंत्रता संग्राम का महानायक(15 नवंबर 1875- 9 जून 1900 )


बिरसा मुंडा: जनजातीय चेतना और स्वतंत्रता संग्राम का महानायक(15 नवंबर 1875-  9 जून 1900 )

भारत का स्वतंत्रता संग्राम केवल शहरी केंद्रों तक सीमित नहीं था, बल्कि देश के दूरस्थ जनजातीय क्षेत्रों में भी इसे व्यापक समर्थन मिला। आदिवासी समाज के वीर योद्धाओं ने अपनी भूमि, संस्कृति, और अस्तित्व की रक्षा के लिए अंग्रेज़ी शासन और शोषणकारी व्यवस्थाओं के खिलाफ संगठित विद्रोह किया। ऐसे ही महानायक थे बिरसा मुंडा, जिन्होंने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ उलगुलान (महाविद्रोह) का नेतृत्व किया, बल्कि आदिवासी समाज में सामाजिक और धार्मिक जागरण भी लाया। उनकी संघर्षगाथा भारतीय इतिहास में एक उज्ज्वल अध्याय है, जो सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है। उनके विचार और आंदोलन आज भी जनजातीय अधिकारों, सामाजिक न्याय और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के संदर्भ में प्रासंगिक हैं।

जीवन परिचय

बिरसा मुंडा का जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड (तत्कालीन बंगाल प्रेसीडेंसी) के खूंटी ज़िले के उलिहातु गाँव में हुआ था। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हथी था। बिरसा मुंडा का जन्म मुंडा जनजाति के एक साधारण परिवार में हुआ, और उनका बचपन अत्यंत गरीबी व कठिन परिस्थितियों में बीता। प्रारंभिक जीवन में वे प्राकृतिक परिवेश से गहराई से जुड़े रहे और पारंपरिक आदिवासी संस्कृति में पले-बढ़े। उनके विचारों और संघर्ष में उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि तथा सामाजिक परिस्थितियों का विशेष योगदान रहा।

शिक्षा और वैचारिक विकास

बिरसा ने प्रारंभिक शिक्षा जर्मन मिशन स्कूल, चाईबासा में प्राप्त की। मिशनरी विद्यालय ने उन्हें ईसाई धर्म अपनाने के लिए प्रेरित किया, लेकिन जल्द ही उन्होंने अनुभव किया कि मिशनरी गतिविधियाँ आदिवासी संस्कृति और धर्म को नष्ट करने का कार्य कर रही थीं। इससे उनमें जागृति आई, और उन्होंने शिक्षा छोड़कर अपने समुदाय को जागरूक करने का संकल्प लिया।
उन्होंने पारंपरिक आदिवासी धार्मिक प्रथाओं को पुनर्जीवित करने और अपने समाज को बाहरी प्रभावों से बचाने के लिए "बिरसाइट धर्म" की स्थापना की। यह एक सुधारवादी आंदोलन था, जिसमें वे नशामुक्ति, सामाजिक शुद्धता, और श्रम की प्रतिष्ठा पर जोर देते थे।

धार्मिक और सामाजिक आंदोलन

बिरसा मुंडा ने एक नए धार्मिक और सामाजिक आंदोलन की शुरुआत की, जिसका मुख्य उद्देश्य आदिवासी समुदाय को उसकी मूल परंपराओं और धार्मिक मान्यताओं की ओर लौटाना था। इस आंदोलन के प्रमुख सिद्धांत थे:- 

 आदिवासी संस्कृति और परंपराओं की पुनर्स्थापना
 
 मूर्तिपूजा का विरोध और एक ईश्वर में आस्था
 
 नशा, अंधविश्वास और अस्पृश्यता का बहिष्कार
 
स्वच्छता, नैतिकता और श्रम को महत्त्व देना

बिरसा ने अपने अनुयायियों को एक नई सामाजिक और धार्मिक चेतना से परिचित कराया। उन्होंने जनजातीय समाज को संगठित करने का कार्य किया और उन्हें बाहरी शोषण से मुक्ति की राह दिखाई।

ब्रिटिश शासन और ज़मींदारी व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष

19वीं शताब्दी के अंत में ब्रिटिश शासन ने आदिवासी समाज के लिए अनेक शोषणकारी नीतियाँ अपनाई थीं। भूमि हथियाने, भारी कराधान, जबरन श्रम, और ज़मींदारी प्रथा के कारण आदिवासियों को अपनी परंपरागत आजीविका से वंचित कर दिया गया। बिरसा मुंडा ने इन अन्यायपूर्ण नीतियों का विरोध किया और संगठित विद्रोह का नेतृत्व किया।
उनके संघर्ष के मुख्य उद्देश्य थे:- 
 
 "जंगल जमीन हमारा है"—यानी भूमि पर आदिवासियों का अधिकार बहाल करना।

 
अंग्रेज़ी कानून और राजस्व प्रणाली का विरोध करना।

 जमींदारों, साहूकारों और मिशनरियों द्वारा शोषण का प्रतिकार करना।

आदिवासी स्वराज और सांस्कृतिक पुनर्जागरण स्थापित करना।

उलगुलान आंदोलन (1895-1900)

बिरसा मुंडा ने गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई और अपने अनुयायियों को संगठित किया। उनके नेतृत्व में हजारों आदिवासियों ने ब्रिटिश शासन और ज़मींदारी प्रथा के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष किया। अंग्रेज़ सरकार को यह विद्रोह एक गंभीर चुनौती लगा, और उन्होंने इस आंदोलन को कुचलने के लिए बड़े पैमाने पर सैन्य अभियान चलाया।
अंततः 3 फरवरी 1900 को बिरसा मुंडा को गिरफ्तार कर लिया गया। उनकी मृत्यु 9 जून 1900 को रांची जेल में हुई। ब्रिटिश सरकार ने इसे "हैजा से मृत्यु" बताया, लेकिन अनेक इतिहासकारों और जनजातीय समाज का मानना है कि उन्हें जहर देकर मार दिया गया था।

बिरसा मुंडा का योगदान

बिरसा मुंडा का भारतीय इतिहास और जनजातीय समाज के लिए योगदान अतुलनीय है:- 

  जनजातीय चेतना का जागरण: उन्होंने आदिवासी समाज को संगठित कर उसकी सांस्कृतिक पहचान को मजबूत किया।

  भूमि अधिकार आंदोलन: उन्होंने आदिवासियों के भूमि अधिकार की रक्षा के लिए संघर्ष किया, जो आज भी प्रासंगिक है।

 धार्मिक और सामाजिक सुधार: उन्होंने नशामुक्ति, स्वच्छता और एकेश्वरवाद को प्रोत्साहित कर समाज में सुधार लाने का प्रयास किया।

  ब्रिटिश शासन का विरोध: उनके नेतृत्व में आदिवासी विद्रोह ने स्वतंत्रता संग्राम को गति दी और ब्रिटिश हुकूमत को चुनौती दी।

विरासत और स्मृति

बिरसा मुंडा की स्मृति और विरासत को भारत में कई रूपों में संजोया गया है:
 
हर वर्ष 15 नवंबर को झारखंड स्थापना दिवस मनाया जाता है, जो उनके जन्मदिवस पर है।
 
 उनके नाम पर बिरसा कृषि विश्वविद्यालय, बिरसा मुंडा केंद्रीय कारागार, और अन्य संस्थाएँ स्थापित हैं।

 दिल्ली संसद भवन परिसर में उनकी प्रतिमा स्थापित है, जो उनके राष्ट्रीय महत्व को दर्शाती है।

भारत सरकार ने 2021 में 15 नवंबर को 'जनजातीय गौरव दिवस' घोषित किया, जिससे उनकी जयंती को राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली।

निष्कर्ष

बिरसा मुंडा केवल एक ऐतिहासिक व्यक्ति नहीं, बल्कि एक चेतना, एक विचारधारा, और एक आंदोलन हैं। उनके संघर्ष ने आदिवासी समाज को जागरूक करने का कार्य किया, और उनकी विचारधारा आज भी जनजातीय अधिकारों और सामाजिक न्याय के संदर्भ में प्रासंगिक बनी हुई है। उनकी क्रांतिकारी भावना, संगठनात्मक शक्ति, और सामाजिक सुधार की दृष्टि भारत की सांस्कृतिक और राजनीतिक विरासत का अमूल्य हिस्सा हैं। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनके योगदान को राष्ट्रीय सम्मान देना प्रत्येक भारतीय का कर्तव्य है।

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