भारत में आपातकाल (25जून 1975-21मार्च 1977)
प्रस्तावना
भारत के लोकतांत्रिक इतिहास में 25 जून 1975 से 21 मार्च 1977 तक का कालखंड एक काली स्याही से लिखा गया पृष्ठ माना जाता है। इस अवधि को "आपातकाल" (Emergency) कहा जाता है। यह वह समय था जब भारतीय लोकतंत्र पर सेंसरशिप, गिरफ्तारी, दमन और तानाशाही जैसे आरोप लगे। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा घोषित आपातकाल ने न केवल संवैधानिक संस्थाओं को झकझोर दिया, बल्कि आम जनजीवन, मीडिया, न्यायपालिका और विपक्षी दलों की स्वतंत्रता भी सीमित कर दी। यह एक ऐसा दौर था जिसने देश के सामाजिक, राजनीतिक और कानूनी ताने-बाने पर गहरा असर डाला, जिसकी गूँज आज भी भारतीय राजनीति में सुनाई देती है।
आपातकाल की पृष्ठभूमि
आपातकाल की घोषणा के पीछे कई जटिल कारक जिम्मेदार थे, जो 1970 के दशक की शुरुआत से ही देश में पनप रहे थे।
1. राजनीतिक अस्थिरता और विरोध प्रदर्शन
1970 के दशक में देश गंभीर राजनीतिक और आर्थिक संकट से गुजर रहा था। महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार और प्रशासनिक अक्षमता से जन असंतोष बढ़ता जा रहा था। गुजरात और बिहार में छात्र आंदोलन एक बड़ी चुनौती बनकर उभरे, जिन्होंने सरकार की नीतियों पर सवाल उठाए। जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में "संपूर्ण क्रांति आंदोलन" बिहार और उत्तर भारत में व्यापक हो गया। यह आंदोलन केवल सरकार-विरोधी नहीं था, बल्कि यह व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग कर रहा था। जेपी ने जनता से अपील की थी कि वे सरकार के आदेशों की अवहेलना करें, जिससे सरकारी कामकाज में बाधा उत्पन्न हुई और प्रशासन पर दबाव बढ़ गया।
2. इलाहाबाद उच्च न्यायालय का ऐतिहासिक फैसला (12 जून 1975)
इस फैसले ने मौजूदा राजनीतिक संकट को और गहरा दिया। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति जगमोहनलाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को रायबरेली से लोकसभा चुनाव में सरकारी साधनों के दुरुपयोग का दोषी करार देते हुए उनका चुनाव रद्द कर दिया। साथ ही, उन पर 6 वर्षों तक चुनाव लड़ने पर रोक भी लगाई गई। इस फैसले के बाद इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग जोर पकड़ने लगी, और विपक्ष ने उनके खिलाफ एक बड़ा मोर्चा खोल दिया। इस स्थिति ने सरकार और प्रधानमंत्री पर जबरदस्त दबाव बढ़ा दिया।
आपातकाल की घोषणा
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले और देशव्यापी विरोध प्रदर्शनों के बीच, 25 जून 1975 की रात, तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आंतरिक अस्थिरता को आधार बनाकर आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए। यह निर्णय पूरी तरह से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सिफारिश पर लिया गया। यह भारतीय संविधान के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना थी, जिसने देश को एक नए, अनिश्चित दौर में धकेल दिया।
आपातकाल के प्रमुख पहलू
आपातकाल के दौरान सरकार ने कई कठोर कदम उठाए, जिनका उद्देश्य विरोध को दबाना और सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित करना था।
1. नागरिक स्वतंत्रताओं पर अंकुश
आपातकाल की घोषणा के साथ ही संविधान के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया गया, जिससे नागरिकों को अपनी अभिव्यक्ति और स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित कर दिया गया। प्रेस पर कठोर सेंसरशिप लागू हुई; समाचार पत्रों को सरकार द्वारा अनुमोदित होने से पहले सामग्री दिखानी पड़ती थी, जिससे खबरों का गला घोंट दिया गया। विपक्षी नेताओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और छात्रों को बिना मुकदमे के गिरफ्तार कर लिया गया। मीसा (Maintenance of Internal Security Act) नामक विवादास्पद कानून के अंतर्गत हजारों गिरफ्तारियाँ हुईं, जिससे लोगों में भय का माहौल बन गया।
2. राजनीतिक दमन
विपक्ष को पूरी तरह से कुचलने का प्रयास किया गया। जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मोरारजी देसाई, चरण सिंह, जॉर्ज फर्नांडीस जैसे प्रमुख विपक्षी नेता जेल में डाले गए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) और कई गैर-कांग्रेसी संगठनों को प्रतिबंधित किया गया, जिससे उनके कार्यकर्ताओं को बड़े पैमाने पर गिरफ्तार किया गया।
3. संविधान और संस्थाओं की स्थिति
आपातकाल के दौरान संसद और न्यायपालिका के अधिकार सीमित किए गए, जिससे शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को गंभीर धक्का लगा। राष्ट्रपति की भूमिका महज मुहर तक सीमित रह गई, और वे सरकार के निर्णयों को चुनौती नहीं दे सके। संविधान में 42वां संशोधन (1976) कर कई बड़े बदलाव किए गए, जिन्हें "लघु संविधान" भी कहा जाता है। इन संशोधनों के माध्यम से न्यायिक समीक्षा की सीमाएँ तय की गईं और संसद की सर्वोच्चता स्थापित करने का प्रयास किया गया।
4. संजय गांधी की भूमिका
प्रधानमंत्री के पुत्र संजय गांधी ने सत्ता के केंद्र में एक अनौपचारिक लेकिन प्रभावशाली भूमिका निभाई। हालांकि वे किसी आधिकारिक पद पर नहीं थे, लेकिन उनकी शक्ति और प्रभाव अप्रत्याशित रूप से बढ़ गया था। उन्होंने जबरन नसबंदी, झुग्गी हटाओ अभियान और परिवार नियोजन जैसे विवादास्पद कार्यक्रम चलाए, जिनसे जनता में गहरा असंतोष और आक्रोश पनपा। उनके इन कदमों ने सरकार की छवि को और नुकसान पहुंचाया।
आपातकाल का अंत
जनता में बढ़ते असंतोष, खासकर संजय गांधी के विवादास्पद कार्यक्रमों के कारण, इंदिरा गांधी ने अपनी रणनीति में बदलाव करने का फैसला किया। 18 जनवरी 1977 को उन्होंने लोकसभा भंग कर चुनाव की घोषणा की। मार्च 1977 में हुए आम चुनाव में जनता पार्टी ने ऐतिहासिक विजय प्राप्त की। इस चुनाव में इंदिरा गांधी और संजय गांधी दोनों अपनी-अपनी सीटों से चुनाव हार गए, जो तत्कालीन सरकार के खिलाफ जनता के गुस्से को दर्शाता था। इसके साथ ही आपातकाल का अंत हुआ और मोरारजी देसाई के नेतृत्व में पहली बार गैर-कांग्रेसी सरकार बनी। यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक महत्वपूर्ण क्षण था, जिसने दिखाया कि जनता की शक्ति अंततः सर्वोपरि होती है।
आपातकाल के प्रभाव
आपातकाल के प्रभाव बहुआयामी थे, जिसके कुछ कथित सकारात्मक और कई स्पष्ट नकारात्मक परिणाम सामने आए।
सकारात्मक पक्ष (कुछ समर्थकों की दृष्टि से):
* प्रशासन में थोड़ी चुस्ती आई और सरकारी कामकाज में एक निश्चित अनुशासन देखने को मिला।
* कुछ क्षेत्रों में विकास योजनाओं में तेजी आई, जिससे कुछ हद तक आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।
* ट्रेनें समय पर चलने लगीं और सरकारी कर्मचारी अधिक अनुशासित हुए। महंगाई पर भी कुछ हद तक नियंत्रण पाया गया।
नकारात्मक प्रभाव:
* लोकतंत्र को गंभीर चोट पहुंची, और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर सवाल उठे।
* हजारों निर्दोष लोग जेलों में ठूंसे गए, जिससे नागरिक अधिकारों का हनन हुआ।
* प्रेस की स्वतंत्रता को कुचला गया, जिससे सूचना का प्रवाह बाधित हुआ और सरकार की आलोचना को दबा दिया गया।
* जबरन नसबंदी और पुनर्वास जैसे फैसलों से जनता में भय और आक्रोश फैला, जिससे सरकार की छवि को गंभीर नुकसान हुआ।
* यह दौर सत्ता के केंद्रीकरण और व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाओं के खतरनाक परिणामों का एक उदाहरण बन गया।
निष्कर्ष
भारत में लगाया गया आपातकाल एक ऐसा अध्याय है जिसने लोकतंत्र के मूल्य, संविधान की गरिमा और नागरिक स्वतंत्रता की महत्ता को नई दृष्टि से समझाया। यह घटना आज भी भारतीय जनतंत्र को यह स्मरण कराती है कि लोकतंत्र की रक्षा केवल संस्थाओं से नहीं, बल्कि सजग नागरिकों की चेतना से होती है। यह हमें सिखाता है कि जब सत्ता निरंकुश होने लगे तो जनता को अपने अधिकारों के प्रति सचेत रहना चाहिए और उन्हें बनाए रखने के लिए संघर्ष करना चाहिए। आपातकाल भारतीय इतिहास में एक सबक के रूप में दर्ज है, जो हमें हमेशा याद दिलाता रहेगा कि स्वतंत्रता और लोकतंत्र अनमोल हैं और उनकी रक्षा के लिए निरंतर प्रयास आवश्यक हैं।
प्रेरणादायक पंक्ति:
“जब अंधकार गहराता है, तब एक चिंगारी भी क्रांति का कारण बन सकती है।”
— जयप्रकाश नारायण
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