शिवपूजन सहाय : हिंदी साहित्य के सजग प्रहरी और यथार्थवादी रचनाकार(9 अगस्त 1893- 21 जनवरी 1963)
भूमिका
शिवपूजन सहाय (1893–1963) हिंदी साहित्य के उस युग के प्रतिनिधि साहित्यकार थे, जब हिंदी साहित्य में सामाजिक यथार्थ, ग्रामीण जीवन की करुणा और मानवीय संवेदनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति आरंभ हो रही थी। वे न केवल एक कुशल कथाकार और संपादक थे, बल्कि हिंदी पत्रकारिता को एक नई दिशा देने वाले साहित्यकार भी थे। उनकी रचनाओं में ग्रामीण भारत का जीवंत चित्रण, सामाजिक विसंगतियों का ईमानदार विश्लेषण और भाषा की सहजता के साथ गहरी संवेदनशीलता देखने को मिलती है।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
शिवपूजन सहाय का जन्म 9 अगस्त 1893 को बिहार के सारण ज़िले (वर्तमान में छपरा) के उन邑 गांव ‘उनवाँ’ में हुआ। उनके पिता प्राचीन संस्कृति के अध्ययन में रुचि रखने वाले व्यक्ति थे। प्रारंभिक शिक्षा गांव में हुई, फिर उन्होंने छपरा और पटना में पढ़ाई जारी रखी। वे बचपन से ही साहित्यिक प्रवृत्ति के थे और पत्र-पत्रिकाओं में लिखने लगे थे।
साहित्यिक यात्रा का प्रारंभ
शिवपूजन सहाय ने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविता लेखन से की, लेकिन बाद में गद्य की ओर उनका झुकाव हुआ। 1913 में वे बनारस आ गए, जहां ‘सरस्वती प्रेस’ और बाद में ‘भारतेन्दु पत्रमाला’ से जुड़े। बनारस के साहित्यिक वातावरण ने उनकी रचनात्मकता को निखारा।
प्रमुख साहित्यिक योगदान
उपन्यासकार के रूप में
शिवपूजन सहाय का सबसे प्रसिद्ध उपन्यास "देवरानी-जेठानी" (1933) है, जिसमें ग्रामीण पारिवारिक जीवन की सूक्ष्मताओं, घरेलू रिश्तों की खटास-मीठास और स्त्री-जीवन के संघर्ष का यथार्थ चित्रण है। इसके अलावा उन्होंने "विभूति", "उदाहरण", और "ग्राम्य जीवन" जैसे उपन्यास लिखे, जो हिंदी के यथार्थवादी साहित्य में महत्त्वपूर्ण स्थान रखते हैं।
कहानीकार के रूप में
उनकी कहानियों में ग्रामीण जीवन, किसानों की समस्याएँ, जातिगत विसंगतियाँ और सामाजिक शोषण के चित्र हैं। "बालचरित", "परिवार", "बिहार-भूषण" जैसी कहानियाँ आज भी प्रभावी मानी जाती हैं।
पत्रकार और संपादक के रूप में
शिवपूजन सहाय का हिंदी पत्रकारिता में भी अद्वितीय योगदान रहा। उन्होंने ‘मर्यादा’, ‘हिन्दुस्तानी’, ‘आज’, और ‘बालक’ जैसी पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया।
उनके संपादन में ‘मर्यादा’ पत्रिका हिंदी में साहित्यिक पत्रकारिता का एक मील का पत्थर बनी।
भाषा और शैली
शिवपूजन सहाय की भाषा सहज, प्रवाहपूर्ण और बोलचाल के मुहावरों से सजी हुई थी। वे शुद्ध साहित्यिक हिंदी में लोकजीवन की बारीकियाँ उतारने में दक्ष थे।
उनकी शैली में —
- सहजता और आत्मीयता
- ग्रामीण जीवन की गंध
- मानवीय करुणा और संवेदना
- सामाजिक व्यंग्य और आलोचना
का अद्भुत संगम देखने को मिलता है।
सामाजिक दृष्टि और विचारधारा
शिवपूजन सहाय ग्रामीण समाज के गहरे पर्यवेक्षक थे। उन्होंने किसानों की दयनीय स्थिति, सामंती शोषण, जातिगत भेदभाव और महिलाओं की पीड़ा को अपनी रचनाओं में स्वर दिया।
उनकी दृष्टि लोकजीवन के प्रति सहानुभूतिपूर्ण और सुधारवादी थी।
सम्मान और पुरस्कार
- उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि मिली।
- हिंदी पत्रकारिता और साहित्य में योगदान के लिए अनेक संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित किया।
- उनकी स्मृति में साहित्यिक संस्थाएँ और पुरस्कार स्थापित किए गए हैं।
अंतिम जीवन और निधन
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में वे वाराणसी में रहे और स्वतंत्र लेखन व संपादन करते रहे।
उन्होंने 21 जनवरी 1963 को वाराणसी में अंतिम सांस ली।
साहित्यिक मूल्यांकन
शिवपूजन सहाय की रचनाएँ यह प्रमाणित करती हैं कि वे केवल कथाकार नहीं, बल्कि समाज के संवेदनशील द्रष्टा थे। प्रेमचंद के बाद वे हिंदी के यथार्थवादी गद्य साहित्य के प्रमुख हस्ताक्षर माने जाते हैं। उनकी रचनाओं ने यह दिखाया कि साहित्य केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का माध्यम भी हो सकता है।
निष्कर्ष
शिवपूजन सहाय हिंदी साहित्य में ग्रामीण यथार्थ, मानवीय करुणा और सामाजिक सुधार की चेतना के सशक्त प्रवक्ता थे। उन्होंने पत्रकारिता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण और संपादन—सभी क्षेत्रों में अमिट छाप छोड़ी। उनका साहित्य आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि इसमें भारतीय समाज की जड़ों और सच्चाई का जीवंत दस्तावेज मौजूद है।

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