पंडित रामदहिन ओझा: स्वतंत्रता संग्राम के महान पत्रकार और शहीद (1901 – 18 फरवरी, 1931)
पंडित रामदहिन ओझा भारत के प्रसिद्ध पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी थे, जिनकी शहादत असहयोग आंदोलन के दौरान किसी पत्रकार की पहली शहादत मानी जाती है। वे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के उन महानायकों में से थे जिन्होंने अपने प्रखर लेखन और जन जागरण से ब्रिटिश सत्ता की नींव को हिला दिया। पंडित रामदहिन ओझा कोलकाता से 1923-24 में प्रकाशित होने वाले हिंदी साप्ताहिक 'युगान्तर' के संपादक थे। उनकी लेखनी में इतनी शक्ति थी कि उन्होंने अपने विचारों से लोगों को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
जब बलिया जेल में उनकी शहादत हुई, तब वे मात्र 30 वर्ष के थे। ऐसा कहा जाता है कि जेल में उन्हें धीमा जहर दिया गया, जिसके कारण उनकी मृत्यु हुई। उनके समकालीन स्वतंत्रता सेनानियों का भी यही मानना था। उनका व्यक्तित्व बहुआयामी था—वे कवि, पत्रकार और स्वतंत्रता सेनानी थे, और उनके ये सारे आयाम राष्ट्र को समर्पित थे। उन्होंने अपने लेखों और कविताओं में ब्रिटिश हुकूमत की नीतियों की कड़ी आलोचना की, जिससे वे ब्रिटिश सरकार के निशाने पर आ गए।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा
पंडित रामदहिन ओझा का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के बांसडीह कस्बे में हुआ था। उनका परिवार परंपरागत ब्राह्मण परिवार था, जिसमें शिक्षा और संस्कृति को विशेष महत्व दिया जाता था। प्रारंभिक शिक्षा बांसडीह में पूरी करने के बाद उनके पिता रामसूचित ओझा उन्हें आगे की शिक्षा के लिए कोलकाता ले गए। उस समय कोलकाता भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का एक प्रमुख केंद्र था और यही कारण था कि रामदहिन ओझा की सोच और विचारधारा पर इसका गहरा प्रभाव पड़ा।
बीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उनकी पहचान कोलकाता और बलिया के स्वतंत्रता सेनानियों और राष्ट्रसेवियों के बीच बन चुकी थी। उन्होंने कलकत्ता में रहते हुए 'विश्वमित्र' और 'मारवाणी अग्रवाल' जैसी पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताएँ लिखनी शुरू कीं। उनके लेखों में राष्ट्रवाद और अंग्रेजों की आलोचना प्रमुख रूप से देखने को मिलती थी। वे अपने लेखों में कभी-कभी उपनाम का प्रयोग करते थे ताकि अंग्रेजी हुकूमत की नजरों से बच सकें।
पंडित रामदहिन ओझा ने कोलकाता, बलिया, और गाजीपुर को अपने कार्यक्षेत्र के रूप में चुना और यहीं से वे स्वतंत्रता संग्राम की अलख जगाने में जुट गए। उनकी लेखनी ने लोगों को आजादी के लिए संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया और इसीलिए वे ब्रिटिश सरकार की आँखों की किरकिरी बन गए।
पत्रकारिता और 'युगान्तर' का संपादन
पंडित रामदहिन ओझा का मुख्य कार्यक्षेत्र पत्रकारिता था। वे कोलकाता से प्रकाशित होने वाले हिंदी साप्ताहिक 'युगान्तर' के संपादक बने, जो 1923-24 में प्रकाशित होता था। 'युगान्तर' उस समय का एक क्रांतिकारी पत्र था जिसने ब्रिटिश शासन की नीतियों की खुलकर आलोचना की और जनता को स्वतंत्रता संग्राम में शामिल होने के लिए प्रेरित किया।
उनके संपादन में 'युगान्तर' ने ब्रिटिश हुकूमत की अन्यायपूर्ण नीतियों, आर्थिक शोषण और सामाजिक असमानता के खिलाफ आवाज उठाई। पत्र में प्रकाशित लेखों और कविताओं ने लोगों के दिलों में आजादी की चिंगारी को और भड़काया। 'युगान्तर' की लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि ब्रिटिश सरकार ने उस पर प्रतिबंध लगा दिया और ओझा जी को गिरफ्तार कर लिया गया।
उनकी कविताएँ 'लालाजी की याद में' और 'फिरंगिया' ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ जनाक्रोश को व्यक्त करती थीं, जिस कारण उन्हें प्रतिबंधित कर दिया गया। उन्होंने अपनी कविताओं में भारतीय संस्कृति, स्वतंत्रता, और न्याय के प्रति अपनी गहरी आस्था को उकेरा, जिससे वे जनता के प्रिय बने।
क्रांतिकारी गतिविधियाँ और संघर्ष
पंडित रामदहिन ओझा की क्रांतिकारी गतिविधियाँ सिर्फ पत्रकारिता तक सीमित नहीं रहीं, बल्कि वे सक्रिय रूप से जन आंदोलनों में भी भाग लेते थे। उनकी तीखी लेखनी और ओजस्वी भाषणों के कारण उन्हें कई बार गिरफ्तार किया गया।
1921 में गिरफ्तारी:
सन् 1921 में असहयोग आंदोलन के दौरान बलिया के बांसडीह कस्बे में उन्हें छह अन्य सेनानियों के साथ गिरफ्तार किया गया। वे सबसे कम उम्र के स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्हें महात्मा गांधी ने 'असहयोग आंदोलन का सप्तऋषि' कहा था। गांधी जी का यह कथन उनके नेतृत्व और साहस को दर्शाता है।
1922 और 1930 में गिरफ्तारियाँ:
इसके बाद वे 1922 और 1930 में भी ब्रिटिश सरकार द्वारा गिरफ्तार किए गए। उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के चलते उन्हें पहले बंगाल और बाद में बलिया व गाजीपुर से निष्कासित कर दिया गया। लेकिन इससे उनके हौसले में कोई कमी नहीं आई, और वे गुप्त रूप से अपनी क्रांतिकारी गतिविधियाँ जारी रखते रहे।
शहादत और विवाद
अंतिम बार गिरफ्तारी के बाद 18 फरवरी 1931 को बलिया जेल प्रशासन ने उन्हें गंभीर अवस्था में उनके मित्र और प्रसिद्ध वकील ठाकुर राधामोहन सिंह के आवास पर पहुंचा दिया, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई। यह आरोप लगाया गया कि जेल में उन्हें धीमा जहर दिया गया, जिससे उनकी मृत्यु हुई।
अखिल भारतीय कांग्रेस की पद्मकान्त मालवीय कमेटी ने जांच में पाया कि उनके खाने में धीमा जहर मिलाया गया था। यह घटना ब्रिटिश शासन की बर्बरता और स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति उनके क्रूर रवैये को उजागर करती है।
विरासत और प्रभाव
पंडित रामदहिन ओझा की शहादत ने बलिया के स्वतंत्रता सेनानियों में नई ऊर्जा का संचार किया, जिसका प्रभाव 1942 के जन आंदोलन में स्पष्ट रूप से देखा गया। उनकी स्मृति में कई स्मारिकाएँ और पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, जो उनके बलिदान और योगदान को अमर बनाती हैं।
उनकी शहादत ने युवाओं में आजादी के प्रति उत्साह और जोश को और बढ़ाया। उनके विचार और लेख आज भी स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक प्रेरणास्रोत बने हुए हैं।
सन्दर्भ:
- 'बलिया में सन बयालीस की जनक्रांति' - दुर्गाप्रसाद गुप्त
- 'समाचार पत्रों का इतिहास' - पंडित अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी
- 'वृहद हिंदी पत्र पत्रकारिता कोश' - डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित
- 'भारतीय पत्रकारिता कोश' - विजयदत्त श्रीधर
- 'पराधीन भारत की स्वाधीन चेतना' - संपादक: रसिक बिहारी ओझा ‘निर्भीक’
- 'बलिया में राष्ट्रीय आंदोलन' - महेंद्र प्रसाद
- 'शहीद रामदहिन ओझा स्मृति' (पुण्यतिथि 1988 को प्रकाशित)
- 'शहीद स्मारिका' (1991 में प्रतिमा अनावरण के अवसर पर प्रकाशित)
पंडित रामदहिन ओझा का बलिदान और उनके विचार हमेशा स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में अमर रहेंगे। उनकी लेखनी और उनके साहस को हमेशा याद किया जाएगा।
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Thank you