महात्मा ज्योतिराव गोविंदराव फुले: सामाजिक चेतना के अग्रदूत
19वीं शताब्दी का भारत जातिगत विभाजन, धार्मिक अंधविश्वास, और सामाजिक रूढ़ियों से जकड़ा हुआ था। स्त्रियाँ, शूद्र, अतिशूद्र, और दलित समुदाय शिक्षा, समानता, और अधिकारों से वंचित थे। ऐसे समय में एक व्यक्ति उठ खड़ा हुआ जिसने इन असमानताओं को ललकारा — वह थे महात्मा ज्योतिराव फुले। उन्होंने शिक्षा, स्त्री सशक्तिकरण, किसान हित, और सामाजिक न्याय के लिए आजीवन संघर्ष किया।
जीवन परिचय
जन्म और परिवार पृष्ठभूमि
महात्मा फुले का जन्म 11 अप्रैल 1827 को पुणे में हुआ था। वे ‘माली’ जाति से थे, जिसे तत्कालीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था में ‘शूद्र’ माना जाता था। उनके पिता गोविंदराव फुले फूलों की दुकान चलाते थे। उनका वास्तविक उपनाम ‘गोरे’ था, लेकिन फूलों का व्यवसाय करने के कारण परिवार ‘फुले’ कहलाने लगा।
बाल्यकाल और शिक्षा
ज्योतिराव के पिता ने पहले उन्हें पढ़ाई से रोका क्योंकि समाज में शूद्रों की शिक्षा को अपमानजनक माना जाता था। लेकिन एक स्कॉटिश मिशनरी के सहयोग और अंग्रेज़ अधिकारी की प्रेरणा से उन्हें 1841 में स्कूल भेजा गया। उन्होंने सातवीं कक्षा तक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की।
जब वे एक ब्राह्मण मित्र की शादी में गए, तो जातिगत अपमान ने उन्हें झकझोर दिया। यहीं से उन्होंने सामाजिक अन्याय के विरुद्ध जीवन भर संघर्ष करने का संकल्प लिया।
सामाजिक सुधार कार्य
महिला शिक्षा और सावित्रीबाई फुले का योगदान
महात्मा फुले का मानना था कि समाज की आधी आबादी यानी स्त्रियाँ यदि अशिक्षित रहीं, तो राष्ट्र कभी आगे नहीं बढ़ सकता। 1848 में उन्होंने अपने घर में ही लड़कियों का पहला स्कूल खोला। यह स्कूल स्त्रियों, दलितों और शूद्रों के लिए था — एक क्रांतिकारी कदम।
इस स्कूल की शिक्षिका थीं सावित्रीबाई फुले, जो स्वयं महात्मा फुले की पत्नी थीं। उन्होंने सावित्रीबाई को पढ़ाया, उन्हें प्रशिक्षित किया और साथ मिलकर सामाजिक कार्यों में जुटे। सावित्रीबाई फुले बाद में भारत की पहली महिला अध्यापिका बनीं।
जब सावित्रीबाई स्कूल जाती थीं, तो उन्हें रास्ते में पत्थर और गोबर फेंककर रोका जाता था। लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।
विधवा पुनर्विवाह और बालहत्या प्रतिबंधक गृह
फुले युगों से शोषित विधवाओं के पक्षधर थे। ब्राह्मण व्यवस्था में विधवाओं को ‘मनहूस’ समझा जाता था, उनके सिर मुंडवाए जाते, जीवन भर सफेद कपड़े पहनने को मजबूर किया जाता था।
फुले दंपति ने 'बाल हत्या प्रतिबंधक गृह' की स्थापना की — जहाँ विधवाएँ सुरक्षित रूप से अपने गर्भ की रक्षा कर सकें और नवजातों को जन्म दे सकें। यह अपने समय से बहुत आगे की सोच थी।
सत्यशोधक समाज की स्थापना (1873)
महात्मा फुले ने 1873 में सत्यशोधक समाज की स्थापना की। यह संगठन ब्राह्मणवाद, जातिवाद, धार्मिक पाखंड और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध था। इस समाज का उद्देश्य था:
- समान शिक्षा का प्रचार
- जातीय भेदभाव का उन्मूलन
- महिला सशक्तिकरण
- शूद्रों और अतिशूद्रों को आत्म-सम्मान देना
सत्यशोधक समाज ने ब्राह्मणों की बजाय स्वयं गैर-ब्राह्मणों द्वारा विवाह-संस्कार, अंतिम संस्कार आदि करने का चलन शुरू किया।
किसान और श्रमिक हितैषी दृष्टिकोण
फुले का ध्यान किसानों की दुर्दशा की ओर भी था। उन्होंने देखा कि किस प्रकार साहूकार, जमींदार और ब्राह्मण किसानों का शोषण करते हैं। उन्होंने लिखा:
- "शेतकऱ्याचा असूड" (शेतकरी का कोड़ा) – जिसमें किसानों की समस्याओं को मुखर रूप से उठाया गया।
साहित्यिक योगदान
महात्मा फुले ने मराठी में कई क्रांतिकारी पुस्तकें और निबंध लिखे:
गुलामगिरी को उन्होंने अमेरिका में दास-प्रथा के अंत की प्रेरणा से लिखा था और यह पुस्तक काले गुलामों को समर्पित थी। इसमें उन्होंने जातिवाद को मानसिक गुलामी बताया।
महात्मा की उपाधि और प्रभाव
1888 में मुंबई के एक समारोह में उन्हें पहली बार ‘महात्मा’ कहा गया। यह उपाधि उन्हें उनके अनुयायी विठ्ठल राव कृष्णाजी वांडेकर ने दी थी।
उनकी विचारधारा पर जिनका प्रभाव पड़ा:
- डॉ. भीमराव अंबेडकर
- शाहू महाराज
- पेरियार ई. वी. रामासामी
- कांशीराम
- और आधुनिक सामाजिक न्यायवादी विचारधाराएं
निधन और विरासत
28 नवंबर 1890 को पुणे में महात्मा फुले का देहांत हुआ। लेकिन उनके विचार आज भी जीवित हैं। उनकी स्मृति में देशभर में संस्थाएं, विश्वविद्यालय, समाज संगठन, अनुसंधान केंद्र स्थापित किए गए हैं।
भारत सरकार ने उनकी स्मृति में डाक टिकट जारी किया और उनके नाम पर पुरस्कार भी घोषित किए हैं।
महात्मा ज्योतिराव फुले एक युगद्रष्टा, सामाजिक क्रांतिकारी और भारत में सामाजिक न्याय की नींव रखने वाले महानायक थे। उन्होंने सड़ी-गली परंपराओं के खिलाफ तलवार नहीं, शिक्षा, जागरूकता और संगठन का सहारा लिया। वे न केवल विचारक थे, बल्कि कर्मयोगी भी थे।
उनका जीवन हमें सिखाता है कि अगर साहस हो, तो कोई भी व्यक्ति सामाजिक बदलाव ला सकता है, चाहे वह किसी भी जाति या पृष्ठभूमि से क्यों न हो।
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