गुरु नानक देव जी: सिख धर्म के आदि संस्थापक और युग-प्रवर्तक
परिचय:
गुरु नानक देव जी (1469–1539) सिख धर्म के संस्थापक और पहले गुरु थे। उन्होंने आध्यात्मिकता, मानवता, समानता और सेवा के शाश्वत सिद्धांतों पर आधारित एक अद्वितीय धर्म की नींव रखी। उनका जीवन और शिक्षाएं आज भी करोड़ों लोगों के लिए न केवल प्रेरणा का अटूट स्रोत हैं, बल्कि एक बेहतर और न्यायपूर्ण विश्व के निर्माण के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करती हैं। उन्होंने तत्कालीन भारतीय समाज में व्याप्त सामाजिक कुरीतियों, धार्मिक अंधविश्वासों, कठोर जात-पात के बंधनों और अन्यायपूर्ण भेदभाव के विरुद्ध एक सशक्त आवाज बुलंद की। उनका जीवन एक ऐसे युग-प्रवर्तक का जीवन है जिसने न केवल एक नए धर्म की स्थापना की, बल्कि सामाजिक और मानवीय क्रांति की नींव भी रखी। वे सच्चे अर्थों में "जगद्गुरु" थे—संपूर्ण विश्व के आध्यात्मिक मार्गदर्शक।
जन्म और प्रारंभिक जीवन:
गुरु नानक देव जी का जन्म 15 अप्रैल 1469 को रावी नदी के सुरम्य तट पर स्थित तलवंडी नामक गाँव में हुआ था, जो वर्तमान में ननकाना साहिब के नाम से पाकिस्तान में स्थित है। उनके पिता, मेहता कालू चंद, एक सम्मानित पटवारी थे, और उनकी माता का नाम तृप्ता देवी था। बचपन से ही बालक नानक में असाधारण प्रतिभा और गहरी आध्यात्मिक जिज्ञासा के लक्षण प्रकट होने लगे थे। सांसारिक विषयों और पारंपरिक शिक्षा में उनकी रुचि अल्प थी; इसके विपरीत, वे अक्सर गहन चिंतन, ध्यान और परमात्मा की खोज में लीन रहते थे। सात वर्ष की आयु में जब उन्हें विद्यालय भेजा गया, तो उनकी तीक्ष्ण बुद्धि और आध्यात्मिक प्रश्नों ने शिक्षकों को भी आश्चर्यचकित कर दिया। उनका मौलिक प्रश्न था: “पहले खुद को जानो, फिर जग को समझो।” उनके पिता ने उन्हें व्यापार, कृषि और पशुपालन जैसे विभिन्न सांसारिक कार्यों में लगाने का भरसक प्रयास किया, परंतु नानक जी का मन किसी भी भौतिक कार्य में स्थायी रूप से नहीं रमा। उनका हृदय तो परमात्मा की अनन्त खोज और मानव कल्याण के लिए तड़प रहा था।
आध्यात्मिक जागरण और संदेश:
गुरु नानक देव जी के जीवन में एक महत्वपूर्ण मोड़ तब आया जब लगभग 30 वर्ष की आयु में उन्हें एक गहन आध्यात्मिक अनुभूति हुई। इस दिव्य अनुभव के पश्चात, उन्होंने एक क्रांतिकारी घोषणा की—“ना कोई हिन्दू, ना मुसलमान।” इस कथन का गहरा अर्थ यह था कि सभी मनुष्य ईश्वर की दृष्टि में समान हैं और ईश्वर स्वयं एक है, जो सभी धार्मिक सीमाओं और पहचानों से परे है। इस आध्यात्मिक सत्य को जन-जन तक पहुँचाने के लिए गुरु नानक जी ने चार महत्वपूर्ण आध्यात्मिक यात्राएँ (उदासियाँ) कीं, जो लगभग 25 वर्षों तक चलीं। इन व्यापक यात्राओं के दौरान उन्होंने उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के विभिन्न देशों का भ्रमण किया और लोगों को सत्य, प्रेम, करुणा और आपसी भाईचारे का दिव्य संदेश दिया। उनकी उदासियों के प्रमुख स्थलों में पूर्व में बंगाल, असम और ओड़िशा, पश्चिम में मक्का, मदीना और बगदाद, उत्तर में तिब्बत और जम्मू-कश्मीर, तथा दक्षिण में श्रीलंका, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु शामिल थे। इन यात्राओं में उन्होंने विभिन्न धार्मिक स्थलों का दौरा किया और संत, पंडित, मौलवी तथा सामान्य लोगों के साथ गहन संवाद स्थापित किया। उन्होंने सर्वत्र यही शिक्षा दी कि ईश्वर किसी विशेष मंदिर या मस्जिद में सीमित नहीं है—वह तो प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान है, और उसे सच्चे प्रेम और भक्ति से अनुभव किया जा सकता है।
मुख्य शिक्षाएं:
गुरु नानक देव जी की शिक्षाएं अत्यंत सरल, सार्वभौमिक और व्यावहारिक थीं, जो तीन आधारभूत सिद्धांतों पर टिकी थीं:
* नाम जपो: इसका अर्थ है ईश्वर का निरंतर स्मरण और ध्यान करना। यह केवल मंत्रों का जाप नहीं है, बल्कि अपने भीतर परमात्मा की उपस्थिति को महसूस करना और उसके गुणों को अपने जीवन में धारण करना है।
* किरत करो: इसका तात्पर्य है ईमानदारी से मेहनत करके अपनी आजीविका कमाना और नैतिक जीवन जीना। गुरु नानक देव जी ने आलस्य और दूसरों पर निर्भर रहने की प्रवृत्ति का विरोध किया और परिश्रम के महत्व को स्थापित किया।
* वंड छको: इसका अर्थ है दूसरों के साथ मिल-बाँटकर खाना और निस्वार्थ सेवा करना। यह सिद्धांत सामाजिक समानता और समुदाय की भावना को बढ़ावा देता है। गुरु नानक जी ने जरूरतमंदों की सहायता करने और संसाधनों को साझा करने के महत्व पर जोर दिया।
गुरु नानक देव जी ने धार्मिक पाखंड, बाहरी आडंबरों और कर्मकांडों का पुरजोर विरोध किया। उन्होंने लोगों को सीधे ईश्वर के साथ व्यक्तिगत संबंध स्थापित करने के लिए प्रेरित किया, बिना किसी मध्यस्थ या जटिल रीति-रिवाजों के। उनका संदेश था कि सच्ची भक्ति हृदय की पवित्रता, निस्वार्थ सेवा और सत्य के मार्ग पर चलने से प्राप्त होती है।
भक्ति और साहित्यिक योगदान:
गुरु नानक देव जी एक महान कवि और संगीतकार भी थे। उन्होंने अनेक प्रेरणादायक भजन और शबद (धार्मिक गीत) रचे, जो सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं। उनके शब्दों में गहरी भक्ति, परमात्मा के प्रति प्रेम, समस्त जीवों के प्रति करुणा और उच्च मानवीय मूल्यों की झलक मिलती है। उनके पदों में ब्रह्म ज्ञान और सामाजिक चेतना का अद्भुत समन्वय है। उनका प्रसिद्ध मूल मंत्र, "एक ओंकार सतनाम, करता पुरख, निर्भउ, निरवैर..." (ईश्वर एक है, उसका नाम सत्य है, वह सृष्टि का कर्ता है, वह निर्भय और वैर रहित है), सिख धर्म का आधारभूत सिद्धांत है और ईश्वर की अद्वितीयता और सर्वव्यापकता को दर्शाता है। उनकी रचनाएँ विभिन्न लोक भाषाओं (पंजाबी, ब्रज, अवधी आदि) में हैं, जिससे उनके विचार आम जनमानस तक आसानी से पहुँच सके।
नानक पंथ और लंगर परंपरा:
गुरु नानक देव जी ने सिख समुदाय में दो महत्वपूर्ण प्रथाओं की नींव रखी: संगत (सामूहिक भक्ति) और पंगत (समानता से बैठकर भोजन करना)। संगत का अर्थ है मिलकर ईश्वर की स्तुति करना, आध्यात्मिक चर्चा करना और एक-दूसरे का सहयोग करना। पंगत, जिसे आज भी गुरुद्वारों में लंगर के रूप में जाना जाता है, एक सामुदायिक रसोई है जहाँ सभी लोग जाति, धर्म, लिंग या सामाजिक स्थिति के भेदभाव के बिना एक साथ बैठकर भोजन करते हैं। यह परंपरा सामाजिक समानता, सेवा की भावना और भाईचारे का प्रतीक है। लंगर न केवल शारीरिक भूख मिटाता है, बल्कि अहंकार को भी दूर करता है और सभी को समान मानने की शिक्षा देता है।
स्त्री सम्मान:
गुरु नानक देव जी ने तत्कालीन समाज में व्याप्त नारी भेदभाव के विरुद्ध एक क्रांतिकारी आवाज उठाई। उन्होंने स्त्रियों को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने के लिए पुरजोर वकालत की। उनका प्रसिद्ध कथन है: "सो क्यों मंदा आखिए, जित जंमहि राजान" (उसे बुरा क्यों कहना, जिससे राजाओं का जन्म होता है)। यह विचार उस युग में एक अभूतपूर्व कदम था जब महिलाओं को समाज में द्वितीयक दर्जा प्राप्त था। गुरु नानक जी ने महिलाओं की सृजनात्मक शक्ति और समाज में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता दी और उनके सम्मान की बात कही।
करतारपुर की स्थापना:
अपने जीवन के अंतिम वर्षों में गुरु नानक देव जी ने करतारपुर (वर्तमान पाकिस्तान में स्थित) नामक एक सामुदायिक केंद्र की स्थापना की। यहाँ उन्होंने एक आदर्श जीवनशैली की नींव रखी, जिसमें नाम-स्मरण, कीर्तन, श्रम और सेवा को जीवन का अभिन्न अंग बनाया गया। इस स्थान पर विभिन्न जाति, धर्म और लिंग के लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ रहते थे, मिलकर कार्य करते थे और भोजन करते थे। करतारपुर एक ऐसा केंद्र बन गया जहाँ गुरु नानक जी के अनुयायी उनके प्रत्यक्ष मार्गदर्शन में आध्यात्मिक और सामाजिक जीवन के मूल्यों को जीते थे।
मृत्यु और विरासत:
गुरु नानक देव जी ने 22 सितंबर 1539 को करतारपुर में अपनी भौतिक देह त्याग दी। उनकी मृत्यु के समय भी उनके हिन्दू और मुस्लिम अनुयायियों में यह असमंजस था कि उनके अंतिम संस्कार की विधि क्या हो। एक प्रसिद्ध किंवदंती के अनुसार, जब लोगों ने उनके शरीर पर से चादर हटाई, तो वहाँ केवल फूल मिले, जिन्हें दोनों समुदायों ने आपस में बाँट लिया और अपने-अपने धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार उनका अंतिम संस्कार किया।
गुरु नानक देव जी की विरासत आज भी जीवित है और करोड़ों लोगों को प्रेरित करती है। उनकी शिक्षाएं न केवल सिख धर्म की आधारशिला बनीं, बल्कि उन्होंने पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में सामाजिक और धार्मिक चेतना के एक नए युग का सूत्रपात किया। उन्होंने यह स्पष्ट रूप से दर्शाया कि धर्म का वास्तविक उद्देश्य केवल ईश्वर की आराधना नहीं है, अपितु मनुष्य का समग्र आध्यात्मिक, नैतिक और सामाजिक उत्थान है। उनके द्वारा प्रतिपादित "नाम जपो, कीरत करो, वंड छको" का सार्वभौमिक सिद्धांत आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पाँच सौ वर्ष पहले था, और यह एक न्यायपूर्ण, समान और करुणामय विश्व के निर्माण के लिए हमारा मार्गदर्शन करता रहता है। गुरु नानक देव जी सचमुच एक युग-प्रवर्तक थे, जिन्होंने न केवल एक नए धर्म की नींव रखी, बल्कि मानवता को प्रेम, समानता और सेवा का शाश्वत संदेश भी दिया।

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