नंदलाल बोस: भारतीय कला के युगपुरुष
जीवन परिचय
नंदलाल बोस का जन्म 3 दिसंबर 1882 को बंगाल के एक बंगाली कायस्थ परिवार में हुआ था, परंतु उनका प्रारंभिक जीवन बिहार के मुंगेर जिले में बीता। उनका पैतृक निवास बंगाल में था, लेकिन उनके पिता पूर्णचंद्र बोस मुंगेर में नौकरी करते थे। माता कुंती देवी धार्मिक और कलाप्रिय थीं, जिससे नंदलाल के भीतर कला का बीजारोपण प्रारंभ हुआ।
उनके जीवन का प्रारंभिक दौर संघर्षपूर्ण था। माता-पिता उन्हें पढ़ा-लिखाकर एक व्यवसायिक क्षेत्र में लाना चाहते थे, लेकिन नंदलाल का मन चित्रकला में ही रमता था। अंततः माता-पिता की असहमति के बावजूद उन्होंने सर जॉन वूडबर्न स्कूल ऑफ आर्ट, कोलकाता में प्रवेश लिया और वहीं से उनकी कला यात्रा का सूत्रपात हुआ।
गुरु और प्रेरणास्रोत
नंदलाल बोस के प्रमुख गुरु अवनींद्रनाथ ठाकुर थे, जो स्वयं एक महान कलाकार और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के भतीजे थे। उन्होंने भारतीय कला को विदेशी प्रभावों से मुक्त कर उसकी आत्मा को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। अवनींद्रनाथ ने नंदलाल बोस को अजंता-एलोरा, मुग़ल और राजस्थानी लघुचित्र शैली, जापानी जलरंग शैली और बौद्ध चित्रकला से जोड़ते हुए एक नया मार्ग दिखाया।
नंदलाल ने रवीन्द्रनाथ ठाकुर से जीवन और कला के दर्शन को सीखा और महात्मा गांधी से भारतीयता और स्वराज की भावना को आत्मसात किया। यही कारण है कि उनकी कृतियों में आध्यात्मिकता, राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक चेतना का सुंदर समन्वय मिलता है।
कला की मूल अवधारणाएँ
(क) भारतीय परंपरा का पुनर्जागरण
नंदलाल बोस का उद्देश्य केवल सुंदर चित्र बनाना नहीं था, बल्कि भारतीय आत्मा को पुनर्जीवित करना था। उन्होंने भारत की पौराणिक कथाओं, धार्मिक ग्रंथों, लोकजीवन, त्योहारों और नारी जीवन को अपनी चित्रकला में समाहित किया।
(ख) प्रतीकात्मकता और भावप्रधानता
उनकी चित्रकला में प्रतीक अत्यंत महत्वपूर्ण हैं — 'सती' चित्र केवल पौराणिक कथा नहीं है, वह नारी बलिदान, शुद्धता और सामाजिक विसंगतियों पर एक टिप्पणी भी है। गांधीजी की 'दांडी यात्रा' का चित्र मात्र ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं है, वह स्वराज और आत्मसम्मान की पुकार है।
(ग) स्वदेशी रंग और माध्यम
वे यथासंभव स्वदेशी रंगों, प्राकृतिक साधनों और देशज तकनीकों का प्रयोग करते थे। इससे उनकी कला में एक गहराई, मौलिकता और भारतीयता का रस आता था।
शांति निकेतन और शिक्षा क्षेत्र में योगदान
1919 में नंदलाल बोस को रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने विश्व भारती विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन में कला भवन का प्रधान नियुक्त किया। वहाँ उन्होंने न केवल चित्रकला सिखाई, बल्कि छात्रों को भारतीय संस्कृति, दर्शन, साहित्य और इतिहास से जोड़ा। वे मानते थे कि एक कलाकार का दायित्व समाज को दिशा देना भी होता है।
प्रशिक्षण की विशेषताएँ:
- शास्त्रीय और लोक परंपरा का संयोजन
- हाथ से काम करने की प्रेरणा – जैसे भित्तिचित्र, मूर्तिकला, वॉल पेंटिंग्स
- गुरु-शिष्य परंपरा की पुनर्स्थापना
- आधुनिकता के साथ भारतीयता का समन्वय
उनके प्रमुख शिष्यों में रामकिंकर बैज, बिनोद बिहारी मुखर्जी और बेनीनाथ मुखर्जी जैसे कलाकार शामिल हैं, जिन्होंने आगे चलकर भारतीय कला को नई ऊँचाइयाँ दीं।
प्रमुख कलाकृतियाँ और उनका विश्लेषण
(क) 'सती' (1907):
यह चित्र उनकी प्रारंभिक काल की रचना थी, जिसने उन्हें प्रसिद्धि दिलाई। चित्र में सती की उदासी, त्याग और सामाजिक बंधनों की पीड़ा को दर्शाया गया है। यह चित्र अवनींद्रनाथ ठाकुर की प्रेरणा से बना था, और इसे देखकर ही गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ने नंदलाल को शांतिनिकेतन बुलाया।
(ख) 'शिव और पार्वती':
भारतीय पौराणिक कथाओं के पात्रों को अत्यंत भावनात्मक और सजीव रूप में चित्रित करना नंदलाल की विशेषता थी। यह चित्र सौंदर्य और आध्यात्मिकता का अद्भुत समन्वय है।
(ग) 'गांधी की दांडी यात्रा':
यह चित्र राष्ट्रवादी चेतना से ओतप्रोत है। इसमें गांधीजी के साथ चलते ग्रामीण भारत के चेहरों में संघर्ष, संकल्प और स्वाभिमान का बोध होता है।
(घ) 'हरिपुरा पोस्टर' (1938):
कांग्रेस अधिवेशन के लिए बनाए गए इन पोस्टरों में भारत के ग्रामीण जीवन, कारीगरों, स्त्रियों, बच्चों, किसानों के जीवन को दर्शाया गया। यह कार्य कला और राजनीति के समन्वय का श्रेष्ठ उदाहरण है।
(ङ) संविधान चित्रांकन:
भारतीय संविधान की मूल प्रति की रूपरेखा को सजाने की ऐतिहासिक जिम्मेदारी उन्हें सौंपी गई थी। उन्होंने उसके हर अध्याय के आरंभ में भारतीय संस्कृति, इतिहास और विरासत से जुड़ी चित्रात्मक सजावट की।
विचार और दर्शन
नंदलाल बोस का मानना था कि कला केवल सजावट नहीं, बल्कि आत्मा की अभिव्यक्ति है। उनके अनुसार:-"एक कलाकार का धर्म है – अपनी मातृभूमि की आत्मा को पहचानना और उसे सजीव करना।"
उन्होंने कभी कला को बाजार के लिए नहीं बनाया, न ही उन्होंने चित्रों को सौदागर बनने दिया। उनके चित्र जीवन की साधना हैं, जनचेतना के दर्पण हैं।
सम्मान और पुरस्कार
- पद्म विभूषण (1954)
- ललित कला अकादमी के प्रथम अध्यक्ष
- विश्व भारती विश्वविद्यालय द्वारा ‘देशिकोत्तम’ की उपाधि
- भारत सरकार द्वारा डाक टिकट पर चित्र अंकित
मृत्यु और उत्तराधिकार
16 अप्रैल 1966 को नंदलाल बोस का देहावसान हुआ। उनका निधन भारतीय कला-जगत के लिए अपूरणीय क्षति थी। लेकिन उनके द्वारा बनाए गए कलाकार, उनका दृष्टिकोण और उनकी शैली आज भी कला विद्यालयों में जीवित हैं।
नंदलाल बोस केवल एक चित्रकार नहीं थे, वे भारतीय आत्मा के चित्रकार थे। उन्होंने एक गुलाम भारत में स्वदेशी रंगों से स्वराज का सपना रचा। उनकी कला में भक्ति है, राष्ट्रप्रेम है, संस्कृति है, और समाज का दर्पण है। वे आधुनिक भारत की सांस्कृतिक चेतना के महायोद्धा हैं। आज जब हम भारतीय कला के स्वरूप को देखते हैं, तो उसकी जड़ों में नंदलाल बोस का नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित होता है।

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ReplyDeleteThank you