वीर माता श्रीमती विद्यावती कौर : मातृत्व, बलिदान और राष्ट्रसेवा की प्रतीक(मृत्यु -1 जून 1975)
भारत का इतिहास अनेक वीरों और महापुरुषों की गौरवगाथाओं से भरा पड़ा है, पर उन वीरों को जन्म देने वाली माताओं की तपस्या और त्याग भी उतनी ही महान है। भारतमाता के वीर सपूत भगत सिंह को जन्म देने वाली माता श्रीमती विद्यावती कौर का जीवन देशभक्ति, त्याग, सहनशीलता और आत्मबल का एक अद्वितीय उदाहरण है। वे न केवल एक वीर सपूत की जननी थीं, बल्कि स्वयं भी स्वतंत्रता संग्राम की एक मौन तपस्विनी थीं, जिन्होंने नारी शक्ति की सर्वोच्च मिसाल प्रस्तुत की।
संस्कारों से सुसंस्कृत मातृत्व
माता विद्यावती का विवाह स्वतंत्रता सेनानी सरदार किशन सिंह से हुआ। उनके ससुर सरदार अर्जुन सिंह कट्टर आर्य समाजी थे और नित्य यज्ञ किया करते थे। ऐसे वातावरण में आने पर विद्यावती जी ने भी आर्य समाज के समाज सुधार कार्यों में रुचि ली और स्वयं को उनमें समर्पित कर दिया। उनका जीवन एक ऐसे परिवार में बीता, जहाँ देशभक्ति और बलिदान की गूंज निरंतर सुनाई देती थी।
संघर्षों में तपकर बनीं लौह महिला
माता विद्यावती का जीवन अनेक संघर्षों और कष्टों से भरा रहा। एक ओर जहाँ उनके देवर सरदार अजीत सिंह देश के बाहर रहकर स्वतंत्रता की अलख जगा रहे थे, वहीं सरदार स्वर्ण सिंह जेल यातनाओं में बलिदान हुए। उनके पति किशन सिंह का भी अधिकांश जीवन जेल और मुकदमों में बीता। विद्यावती ने अपने घर को देशभक्ति की पाठशाला बना दिया था।
उन्होंने अपने नौ बच्चों को राष्ट्रप्रेम की घुट्टी पिलाई। बड़े पुत्र जगत सिंह की 11 वर्ष की अल्पायु में मृत्यु और भगत सिंह की मात्र 23 वर्ष की आयु में फाँसी—ये दोनों आघात किसी भी माँ को तोड़ सकते थे, पर विद्यावती जी ने अपने अदम्य आत्मबल से इन्हें सहा। घर की आर्थिक स्थिति चरमरा गई—खेत उजड़ गए, मकान बह गया, डाका पड़ा, बैल चोरी हो गए—पर वे कभी डिगीं नहीं।
क्रांति की जननी
भगत सिंह जब क्रांति के पथ पर चले, तो उनकी माँ उनके साथ खड़ी थीं। जब जेल में भगत सिंह से अंतिम भेंट करने गईं, तो वह दृश्य हृदय विदारक होने के बावजूद प्रेरक था। भगत सिंह ने हँसते हुए कहा—
"बेबे जी, मेरी लाश लेने मत आना। कहीं तू रो पड़ी तो लोग कहेंगे भगत सिंह की मां रो रही है।"
उस माँ ने दिल पर पत्थर रख लिया और अपने आँसुओं को राष्ट्र के चरणों में समर्पित कर दिया।
आखिरी दिनों की सेवा और सच्चा राष्ट्रवाद
आजादी के बाद जब अधिकांश क्रांतिकारी उपेक्षित रह गए, तो माताजी ने उन्हें अपना बेटा मानकर उनकी सेवा की। वे चुपचाप पेंशन की राशि उनके तकियों के नीचे रख देती थीं।
1965 में उज्जैन में श्रीकृष्ण 'सरल' द्वारा रचित "भगत सिंह" महाकाव्य के विमोचन में माताजी के आगमन पर जो सम्मान मिला, वह दर्शाता है कि देश उनके प्रति कितना श्रद्धावान था। उन्होंने समारोह में मिली 11,000 रुपये की राशि भी बटुकेश्वर दत्त के इलाज हेतु भिजवा दी।
मातृत्व की पूर्णता और अंतिम यात्रा
1 जून 1975 को दिल्ली के एक अस्पताल में 96 वर्ष की आयु में जब माताजी ने अंतिम सांस ली, तो उनके हृदय में यह संतोष था कि अब वे अपने अमर पुत्र भगत सिंह से सदा के लिए मिल रही हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के वर्षों बाद भी वे देश और समाज के लिए जीती रहीं। उन्हें "पंजाब माता" की उपाधि दी गई, जो उनके त्याग और राष्ट्रभक्ति का प्रमाण है।
निष्कर्ष
माता विद्यावती कौर भारतीय मातृत्व की उस ऊँचाई की प्रतीक हैं, जहाँ जन्म देना मात्र मातृत्व नहीं, बल्कि उसके संस्कारों में राष्ट्र की आत्मा बसती है। उन्होंने अपने जीवन में जिस तरह संघर्ष, संयम और आदर्शों का पालन किया, वह आज भी भारतीय नारी के लिए एक प्रकाशपुंज है।
ऐसी पुण्यात्मा, देशभक्त, तपस्विनी माता को समस्त भारतवर्ष का कोटि-कोटि नमन।
वंदे मातरम्।
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