सिख धर्म के सप्तम गुरु: श्री गुरु हर राय जी(16 जनवरी 1630 - 6 अक्टूबर 1661)
भूमिका
सिख धर्म के दस गुरुओं की महान परंपरा में श्री गुरु हर राय जी सिखों के सातवें गुरु थे। उन्हें शांति, करुणा और सेवा-भाव की प्रतिमूर्ति माना जाता है। उन्होंने अपने दादा, गुरु हरगोबिंद सिंह जी, द्वारा शुरू किए गए सैन्य संगठन को बनाए रखा, लेकिन अपने 17 साल के गुरुकाल में शांति और धर्मप्रचार पर अधिक जोर दिया।
जीवन परिचय और गुरुपद
गुरु हर राय जी का जन्म 16 जनवरी 1630 को कीरतपुर साहिब (रोपड़) में बाबा गुरु दित्ता जी और माता निहाल कौर के यहाँ हुआ था। वह छठे गुरु, गुरु हरगोबिंद सिंह जी, के पोते थे। अपनी विनम्रता और आध्यात्मिक प्रवृत्ति के कारण, उन्हें गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने स्वयं 3 मार्च 1644 को, मात्र 14 वर्ष की आयु में, सप्तम नानक के रूप में गुरुगद्दी सौंप दी।
एक बार बचपन में, उनके चोले से टकराकर कुछ फूल नीचे गिर गए थे। इस घटना से वे इतने दुखी हुए कि उन्होंने जीवन भर यह प्रण लिया कि वह कभी किसी चीज को नुकसान नहीं पहुँचाएँगे, जो उनकी शांतिप्रियता और कोमल हृदय को दर्शाता है।
प्रमुख योगदान और शिक्षाएँ
गुरु हर राय जी का गुरुकाल (1644-1661) सिख समुदाय को आध्यात्मिक और नैतिक रूप से मजबूत बनाने पर केंद्रित रहा। उनके मुख्य योगदान निम्नलिखित हैं:
मानवता की सेवा और औषधालय (दवाखाना)
गुरु जी एक उत्कृष्ट वैद्य (चिकित्सक) थे। उन्होंने कीरतपुर साहिब में एक आयुर्वेदिक औषधालय और अनुसंधान केंद्र की स्थापना की, जहाँ आम लोगों और ज़रूरतमंदों का मुफ्त इलाज किया जाता था।
दयालुता का उदाहरण: इस औषधालय की प्रसिद्धि तब चरम पर पहुँची जब उन्होंने मुगल शासक शाहजहाँ के बड़े बेटे दारा शिकोह को एक जानलेवा बीमारी से ठीक किया, जिसने गुरु जी की धर्मनिरपेक्ष और निष्पक्ष सेवा-भाव को सिद्ध किया। गुरु जी ने यह संदेश दिया कि मानवता किसी भी सियासत या धर्म से बड़ी होती है।
'मीरी' और 'पीरी' का संतुलन
उन्होंने छठे गुरु द्वारा स्थापित 2200 सिख योद्धाओं के दल को पुनर्गठित किया और उन्हें सैन्य प्रशिक्षण दिया, ताकि वे आत्मरक्षा के लिए तैयार रहें। हालाँकि, उन्होंने इस सैन्य शक्ति का उपयोग किसी युद्ध की शुरुआत करने के लिए नहीं किया। उन्होंने 'मीरी' (सांसारिक शक्ति) और 'पीरी' (आध्यात्मिक शक्ति) के बीच संतुलन बनाए रखा, जिससे सिख समुदाय को शांतिपूर्ण आध्यात्मिक विकास का अवसर मिला।
धर्म प्रचार
गुरु हर राय जी ने सिखों के धर्मप्रचार (मिशनरी) कार्य को आगे बढ़ाया। उन्होंने देश के विभिन्न भागों में अपने मसंगों (प्रतिनिधियों) को भेजा ताकि सिख धर्म की शिक्षाओं को दूर-दूर तक पहुँचाया जा सके।
नैतिक उपदेश
उनकी शिक्षाओं का सार नैतिकता, नेक कमाई, ईमानदारी और परोपकार पर जोर देता था। उन्होंने सदैव लोगों को सिखाया कि बुराई का त्याग कर, अच्छे कर्मों को अपनाना चाहिए और अपनी आय का कुछ अंश जरूरतमंदों को दान करना चाहिए।
मुगल हस्तक्षेप और अंतिम क्षण
मुगल सम्राट औरंगजेब, जिसे दारा शिकोह से राजनीतिक खतरा था, ने गुरु हर राय जी को दिल्ली बुलाया। गुरु जी ने स्वयं न जाकर अपने बड़े बेटे राम राय को मुगल दरबार में भेजा। हालाँकि, राम राय ने औरंगजेब को खुश करने के लिए गुरु ग्रंथ साहिब की एक पंक्ति का गलत अर्थ पेश किया। गुरु हर राय जी को जब यह बात पता चली, तो उन्होंने तुरंत राम राय को सिख पंथ से अलग कर दिया, यह दर्शाते हुए कि धर्मग्रंथ की शुद्धता किसी भी राजनीतिक लाभ से अधिक महत्वपूर्ण है।
अपने अंतिम समय में, उन्होंने 1661 ई. में अपने छोटे पुत्र, गुरु हरकिशन जी को, जो केवल पाँच वर्ष के थे, गुरुगद्दी सौंप दी और 6 अक्टूबर 1661 को कीरतपुर साहिब में ही ज्योति-जोत समा गए।
गुरु हर राय जी का जीवन, करुणा और साहस का एक आदर्श मिश्रण था, जिसने सिख धर्म की नींव को आध्यात्मिक रूप से और भी दृढ़ किया।

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