क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित: क्रांति के अप्रतिम नायक(30 नवंबर 1888- 21 दिसंबर 1920)

क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित: क्रांति के अप्रतिम नायक(30 नवंबर 1888- 21 दिसंबर 1920)
(‘क्रांतिकारियों के द्रोणाचार्य’ को विनम्र श्रद्धांजलि)

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास केवल प्रसिद्ध नामों से नहीं, बल्कि उन मौन तपस्वियों से भी निर्मित है जिन्होंने अँधेरे में दीप जलाए। पंडित गेंदालाल दीक्षित ऐसे ही एक विस्मृत नायक थे—जिन्होंने उत्तर भारत में सशस्त्र क्रांति की मशाल थामी, युवाओं को संगठित किया और रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ जैसे महान क्रांतिकारियों को दिशा दी।

प्रारंभिक जीवन: साधारण शिक्षक, असाधारण संकल्प

30 नवंबर 1888 को उत्तर प्रदेश के आगरा जनपद की बाह तहसील के मई गाँव में जन्मे पंडित गेंदालाल दीक्षित पेशे से एक साधारण विद्यालय शिक्षक थे। किंतु उनके हृदय में स्वतंत्रता का जो ज्वार उमड़ रहा था, वह साधारण नहीं था। शिक्षा उनके लिए आजीविका भर नहीं, बल्कि राष्ट्रनिर्माण का साधन थी—युवाओं में साहस, स्वाभिमान और बलिदान की चेतना जगाने का माध्यम।

मातृवेदी’ की स्थापना: सशस्त्र क्रांति का स्वप्न

दीक्षित जी का दृढ़ विश्वास था कि केवल याचिकाओं और प्रार्थनाओं से गुलामी की जंजीरें नहीं टूटेंगी। इसी विचार से प्रेरित होकर उन्होंने युवाओं और चंबल अंचल के साहसी लोगों को संगठित कर ‘मातृवेदी’ नामक गुप्त क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की।
उनका मानना था कि यदि इस क्षेत्र की ऊर्जा को अनुशासन और उद्देश्य मिले, तो ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिल सकती है। ‘मातृवेदी’ केवल संगठन नहीं, बल्कि स्वाधीनता के लिए समर्पित एक वैचारिक यज्ञ था।

मैनपुरी षड्यंत्र (1918): साहस और रणनीति

इतिहास में पंडित गेंदालाल दीक्षित का नाम मैनपुरी षड्यंत्र से अविभाज्य है। उद्देश्य स्पष्ट था—ब्रिटिश खजाने को लूटकर क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए संसाधन जुटाना और हथियारों से सशक्त होना। दुर्भाग्यवश, एक गद्दार की मुखबिरी के कारण योजना उजागर हुई और अनेक साथी पकड़े गए।
यह घटना भले ही असफलता प्रतीत हो, किंतु इसने सशस्त्र क्रांति को नई दिशा और व्यापक पहचान दी।

जेल से साहसिक पलायन: जीवटता की मिसाल

ग्वालियर किले की जेल में बंदी जीवन के दौरान दीक्षित जी ने अद्भुत साहस का परिचय दिया। बीमारी का नाटक कर उन्होंने प्रहरियों का विश्वास जीता और एक रात अपने साथियों सहित जेल की दीवार फाँदकर फरार हो गए। यह पलायन केवल शारीरिक मुक्ति नहीं, बल्कि औपनिवेशिक दमन को दी गई एक खुली चुनौती थी। इसके बाद ब्रिटिश पुलिस उन्हें फिर कभी पकड़ न सकी।

रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ के गुरु

महान क्रांतिकारी पंडित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ उन्हें अपना मार्गदर्शक और गुरु मानते थे। संगठन-निर्माण, साहसिक निर्णय और क्रांतिकारी दर्शन—इन सब पर दीक्षित जी की गहरी छाप थी। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में उनके प्रति जो सम्मान व्यक्त किया है, वह उनके वैचारिक प्रभाव का जीवंत प्रमाण है।

अंतिम समय: गुमनामी में महान अंत

निरंतर भागदौड़, अत्यधिक गरीबी और बीमारी ने उनके शरीर को क्षीण कर दिया। अंततः 21 दिसंबर 1920 को दिल्ली के एक अस्पताल में, गुमनामी के आवरण में, यह महान क्रांतिकारी पंचतत्व में विलीन हो गया। इतिहास ने भले ही उन्हें कम शब्द दिए हों, पर उनके कर्म अमर हैं।

विरासत: प्रेरणा का अनंत स्रोत

पंडित गेंदालाल दीक्षित ने सिद्ध किया कि एक शिक्षक केवल अक्षर-ज्ञान नहीं देता—वह राष्ट्र की आत्मा को गढ़ता है। ‘मातृवेदी’ के आदर्श, साहस और संगठन की उनकी दृष्टि आज भी देशभक्तों को प्रेरित करती है।
वे भले ही इतिहास के पृष्ठों में ओझल रहे हों, किंतु स्वतंत्र भारत की नींव में उनका योगदान अविस्मरणीय है।
पंडित गेंदालाल दीक्षित को स्मरण करना—स्वतंत्रता के उस अनकहे ऋण को स्वीकार करना है।

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