संत शिरोमणि गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस: उन्नीसवीं सदी के मिथिला नवजागरण, समन्वयवादी दर्शन और राष्ट्रीय चेतना के वाहक
संत साहित्य और भारतीय नवजागरण में गोस्वामी लक्ष्मीनाथ का स्थान
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस (जन्म: 1788, निधन: 1872) भारतीय संत परंपरा के एक ऐसे विलक्षण व्यक्तित्व हैं, जिनकी पहचान केवल एक भक्त कवि तक सीमित नहीं है। उन्हें उनके अनुयायियों द्वारा 'संत शिरोमणि लक्ष्मीनाथ बाबा' और 'गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस' जैसी उच्च आध्यात्मिक उपाधियों से विभूषित किया गया है। उनके अन्य लोकप्रिय नामों में लक्ष्मीपति और गोस्वामी लक्ष्मीपति परमहंस भी शामिल हैं । 'परमहंस' की उपाधि उनकी उच्चतम आध्यात्मिक सिद्धि का प्रतीक है, जो उन्हें भारतीय ज्ञान परंपरा में एक सिद्ध आचार्य के रूप में स्थापित करती है।
उनके बहुआयामी व्यक्तित्व का आकलन यह दर्शाता है कि वे शास्त्रीय ज्ञान, गूढ़ साधना और जनसाधारण की भक्ति को एक साथ साधने में सफल रहे। उपलब्ध साक्ष्य स्पष्ट करते हैं कि वह एक सिद्धयोगी, तांत्रिक और विशेष रूप से अद्वैत वेदान्ती थे । यह त्रि-आयामी पहचान उन्हें केवल पारंपरिक भक्त कवियों की श्रेणी से ऊपर उठाती है। अद्वैत वेदांत शुद्ध ज्ञान (ज्ञान योग) पर बल देता है, जबकि तंत्र और योग क्रियात्मक अभ्यास (साधना) पर केंद्रित हैं। गोसाईं जी ने इन तीनों तत्त्वों को समाहित करके यह सिद्ध किया कि उनका आध्यात्मिक मार्ग केवल पाठ्य-आधारित नहीं, बल्कि अनुभवजन्य और व्यावहारिक था। इस समन्वय ने उनके दर्शन को जनमानस के लिए सुलभ बनाया, जो उन्नीसवीं सदी के सामाजिक-धार्मिक परिवेश के लिए अत्यंत आवश्यक था।
मिथिलांचल के विद्वानों ने उनकी पदावली और कृतित्व को संत साहित्य के महानतम नामों—तुलसी, सूर, और रसखान—के समकक्ष माना है । इसके बावजूद, व्यापक शैक्षणिक प्रचार और मैथिली मीडिया की अपेक्षित सक्रियता की कमी के कारण, उन्हें भारतीय संत साहित्य के मुख्य विमर्श में वह केंद्रीय स्थान प्राप्त नहीं हो सका है, जिसके वह हकदार हैं । यह अकादमिक विमर्श की विफलता मानी जा सकती है, जिसने एक सिद्ध दार्शनिक और नवजागरण के अग्रदूत को क्षेत्रीय सीमा तक सीमित रखा।
जीवनवृत, कालखंड और मिथिला का ऐतिहासिक संदर्भ (1788–1872)
कालखंड और भौगोलिक केंद्र
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस का जीवनकाल 1788 ईस्वी से 1872 ईस्वी तक रहा । यह अवधि भारत में कंपनी राज के चरम उत्कर्ष और 1857 के महान विद्रोह जैसी निर्णायक ऐतिहासिक घटनाओं की साक्षी है। उनका जन्म स्थान बिहार के सुपौल जिले के ग्राम परसरमा में था । यह क्षेत्र पारंपरिक मिथिलांचल का केंद्र रहा है। परसरमा में स्थित बाबा लक्ष्मीनाथ गोसाईं कुटी आज भी उनकी विरासत का मुख्य केंद्र है, जहाँ उनके जन्म और समाधि दिवस पर भव्य उत्सव आयोजित किए जाते हैं । इसके अतिरिक्त, लखनौर (मधुबनी) के राधाकृष्ण मंदिर प्रांगण में भी बाबा लक्ष्मीनाथ कुटी परिसर मौजूद है । इन दो महत्वपूर्ण केंद्रों की उपस्थिति सुपौल से लेकर मध्य मिथिला तक उनके व्यापक भौगोलिक और आध्यात्मिक प्रभाव को प्रमाणित करती है।
मिथिला नवजागरण के प्रथम शलाकापुरुष
साहित्यकार तारानंद वियोगी द्वारा गोस्वामी लक्ष्मीनाथ को 'मिथिला में नवजागरण के प्रथम शलाकापुरुष' के रूप में प्रतिष्ठित किया गया है। यह उपाधि उनके महत्व को एक साधारण संत से उठाकर एक युग प्रवर्तक के रूप में स्थापित करती है। उन्नीसवीं सदी में उन्होंने मिथिला में सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक सुधारों की नींव रखी, जो उस समय के अंधविश्वासों और रूढ़िवादिता को चुनौती देने के लिए आवश्यक था।
गोसाईं जी ने केवल साहित्य रचना नहीं की, अपितु धर्म, जाति, पंथ आदि तमाम संकीर्ण सीमाओं से ऊपर उठकर कार्य किया । उन्होंने दूर-दराज के इलाकों में भ्रमण करते हुए विधेय जीवनमूल्यों (सकारात्मक और रचनात्मक जीवन सिद्धांतों) का प्रचार-प्रसार किया। यह यात्रा और उपदेश का तरीका उन्हें एक सक्रिय सामाजिक सुधारक बनाता है।
1857 के विद्रोह और पौरुष का काव्य
गोसाईं जी के कृतित्व का एक गहन पहलू उनके साहित्य में निहित 'ओज और उत्साह' का भाव है, जिसके कारण उन्हें 'पौरुष के गीतकार' की संज्ञा दी गई है। यह पौरुष केवल आध्यात्मिक बल का प्रतीक नहीं है, बल्कि एक गहरी सामाजिक-राजनीतिक चेतना का वाहक भी है। यह माना जाता है कि उनके भजनों में 'अंग्रेजी राजसत्ता के प्रति तीव्र घृणा और विद्रोह की भावना' स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई थी।
विद्वानों ने यह संभावना जताई है कि जिस प्रकार स्वामी दयानंद सरस्वती ने अवध के गांवों में भूमिगत रहकर 1857 के विद्रोह की पृष्ठभूमि तैयार की थी, ठीक वही कार्य लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने भी किया हो सकता है । यदि उनके मठ और शिष्यों के प्रचार तंत्र का उपयोग औपनिवेशिक विरोधी चेतना को फैलाने के लिए किया गया, तो यह उन्हें धार्मिक संत से बदलकर राष्ट्रीय प्रतिरोध के एक गुप्त नायक की श्रेणी में रखता है। उनकी पदावली, जो कायरता को त्यागने और आलस्य से जागृत होने का आह्वान करती है ("रे मन मूरख जाग सवेरे, क्या कायर ह्वै सोता है" ), आध्यात्मिक मुक्ति के साथ-साथ राजनीतिक निष्क्रियता को तोड़ने की प्रेरणा देती थी।
राम की प्रतिष्ठा और सांस्कृतिक समन्वय
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ ने मिथिला के सांस्कृतिक और धार्मिक विमर्श में एक महत्वपूर्ण मोड़ लाने का कार्य किया। परंपरागत रूप से, मिथिला में भगवान राम की विशेष प्रतिष्ठा नहीं थी, क्योंकि उन्हें मिथिला की बेटी सीता को कष्ट देने के कारण (जनमानस के एक वर्ग द्वारा) नकारात्मक रूप से देखा जाता था । गोसाईं जी ने श्रीराम गीतावली की रचना करके राम भक्ति को मिथिला साहित्य और संस्कृति में सफलतापूर्वक स्थापित किया । यह कार्य केवल साहित्यिक रुचि का विषय नहीं था, बल्कि एक सांस्कृतिक सुलह और समन्वय का प्रयास था। राम को मिथिला में स्थापित करके, गोसाईं जी ने क्षेत्र का भावनात्मक जुड़ाव व्यापक भारतीय धार्मिक और राष्ट्रीय धारा से सुनिश्चित किया, जो उनके नवजागरण आंदोलन का एक केंद्रीय स्तंभ बना।
चिंतन का समन्वयवादी आयाम: अद्वैत वेदांत, योग और संतमत
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस का दार्शनिक योगदान उनकी योग साधना, अद्वैत वेदांत की गहरी समझ और निर्गुण-सगुण भक्ति के संश्लेषण में निहित है।
अद्वैत वेदांत और शास्त्रीय ज्ञान
गोसाईं जी मूल रूप से अद्वैत वेदान्ती थे । उनके गहन शास्त्रीय ज्ञान का प्रमाण इस बात से मिलता है कि उन्होंने वाजसनेयोपनिषद का हिन्दी अनुवाद किया । उपनिषद का अनुवाद करना यह दर्शाता है कि वे ज्ञानयोग के प्रति समर्पित थे और परम सत्य (ब्रह्म) तथा व्यक्तिगत आत्मा (आत्मन) की एकता के मूल सिद्धांतों को जनभाषा में प्रचारित करना चाहते थे।
उनका दर्शन आत्म-प्राप्ति की खोज, नैतिक आचरण के पालन और सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने पर जोर देता है । यह वेदांत दर्शन केवल परम सत्य को एक मानता है, बल्कि मनुष्य के वास्तविक स्वरूप को उसी ब्रह्म के रूप में पहचानता है । गोसाईं जी की रचनाएँ, जैसे प्रश्नोत्तर रत्नमणि माला और भाषा तत्त्वबोध , शास्त्रीय ज्ञान को बोधगम्य रूप में प्रस्तुत करती हैं, जिससे यह समझ विकसित होती है कि कैसे अज्ञान के कारण मनुष्य स्वयं को सीमित मानता है, और ज्ञान के माध्यम से अपने नित्य-मुक्त स्वरूप को अनुभव कर सकता है ।
योग साधना और क्रियात्मक दर्शन
गोसाईं जी की पहचान में 'सिद्धयोगी' और 'तांत्रिक' का समावेश यह बताता है कि उनका मार्ग केवल बौद्धिक ज्ञान तक सीमित नहीं था। उनकी कृतियाँ, विशेष रूप से योग रत्नावली और गुरु पचीसी , उनकी योग साधना की गहराई को दर्शाती हैं।
उनके आध्यात्मिक चिंतन में 'प्राती' (भक्ति/साधना) में योग दर्शन का प्रयोग अद्वितीय माना गया है । इस क्रियात्मक पक्ष ने वेदांत के अकाट्य सैद्धांतिक प्रमाण को अनुभवजन्य रूप से सिद्ध करने का साधन प्रदान किया। यह संश्लेषण उन्हें संतमत परंपरा के प्रमुख आचार्यों में स्थापित करता है, जहाँ गुरु की महिमा (गुरु चौबीसी) और आंतरिक साधना पर बल दिया जाता है। उनकी पदावली 'रे मन मूरख जाग सवेरे' में आलस्य का त्याग करके राम भजन करने का आह्वान किया गया है, जो ज्ञान प्राप्ति के लिए आवश्यक क्रियाशीलता को दर्शाता है।
निर्गुण और सगुण भक्ति का संश्लेषण
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ की सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक उपलब्धि निर्गुण और सगुण भक्ति का सफल समन्वय है। डॉ. देवेन्द्र कुमार देवेश ने उन्हें गोस्वामी तुलसीदास के बाद एकमात्र समन्वयवादी कवि घोषित किया । तुलसीदास ने शैव और वैष्णव परंपराओं का समन्वय किया, जबकि लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने ज्ञान मार्ग (निर्गुण वेदांत/योग) और उपासना मार्ग (सगुण भक्ति) का समन्वय किया।
गोसाईं जी ने अपने दार्शनिक विचारों को सरल और भावनात्मक सगुण पदावलियों के माध्यम से व्यक्त किया। उनके भजनों में कृष्ण या राम के प्रति दीनता और करुणा का भाव अभिव्यक्त होता है (उदाहरणार्थ, 'हे लक्ष्मीपति, हे करुणामय दीन जनक आधार' और 'दिन बंधु लगा दिन बस के हमारो राख ले लाज आज नंद के दुलारो' )। यह सगुण समर्पण जन-सामान्य को उनके करीब लाता था, जबकि उनके उपदेश आंतरिक आत्म-स्वरूप की पहचान पर केंद्रित होते थे। उन्होंने अद्वैत वेदांत के जटिल विचारों को सगुण भक्ति के भावनात्मक आवरण में लपेटकर प्रस्तुत किया, जिससे वह साधारण व्यक्ति के लिए जीवनोपयोगी और उच्च कोटि के बौद्धिकों के लिए विमर्श का विषय बन गया ।
साहित्यिक कृतित्व
पदावली, ओज और भाषागत विविधता
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ का साहित्यिक कृतित्व उनकी भाषाई विविधता और दार्शनिक गहनता के लिए जाना जाता है।
भाषाई समन्वय और पहुंच
गोसाईं जी की भाषाई प्रवीणता उन्हें केवल क्षेत्रीय कवि तक सीमित नहीं करती। उन्होंने खड़ीबोली, अवधी, ब्रजभाषा और मैथिली में रचनाएँ कीं। यह चतुर्भाषी दक्षता यह सुनिश्चित करती थी कि उनके विचार व्यापक भौगोलिक क्षेत्र और विभिन्न भाषिक समुदायों तक पहुँच सकें।
मैथिली साहित्य में उनका योगदान विशेष रूप से महत्वपूर्ण है, क्योंकि उन्होंने ही राम भक्ति को मिथिला में मजबूती से स्थापित किया, जहाँ पहले राम की कोई विशेष प्रतिष्ठा नहीं थी ।
प्रमुख कृतियाँ और भक्ति काव्य
उनकी प्रमुख कृतियों में शामिल हैं: श्रीराम गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, श्रीराम रत्नावली, अकारादि दोहावली, गुरु चौबीसी, परमहंस भजन-सार, और योग रत्नावली ।
श्रीराम गीतावली
इस रचना में राम के माध्यम से मर्यादा, नैतिकता और कर्तव्यनिष्ठा के मूल्यों का प्रचार किया गया, जो 19वीं सदी के नवजागरण और सामाजिक पुनरुत्थान के लिए महत्वपूर्ण थे।
श्रीकृष्ण गीतावली
कृष्ण से संबंधित पदों में माधुर्य, वात्सल्य और भावनात्मक दैन्य भाव की अभिव्यक्ति है। उनके भजन, जैसे 'लक्ष्मीपति सुनत तेरे लाई नहीं तनिक देर दिन बंधु लगा दिन... राख ले लाज आज नंद के दुलारो' , भक्त और भगवान के बीच तात्कालिक और गहन संबंध को दर्शाते हैं।
दार्शनिक और नैतिक उपदेश
उनकी पदावलियों में व्यवहारिक जीवन मूल्यों पर ज़ोर दिया गया है। भजन जैसे, "रे मन मूरख जाग सवेरे, क्या कायर ह्वै सोता है। राम भजन करि पाई मनुज तन, क्यों आलस में खोता है" , मनुष्य जीवन की दुर्लभता को रेखांकित करते हैं और आलस्य (आलस) के त्याग पर बल देते हैं। यह संदेश केवल आध्यात्मिक नहीं था, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय पुनरुत्थान के लिए क्रियाशीलता का आह्वान करता था।
काव्यात्मक उद्देश्य और सरलता
गोसाईं जी की काव्य भाषा की सरलता और प्रत्यक्षता ने उनके जटिल दार्शनिक विचारों को आम जनता के लिए सुलभ बनाया।
एक नवजागरण के शलाकापुरुष के रूप में , उनका लक्ष्य था शास्त्रीय संस्कृत से प्राप्त वेदांत के ज्ञान को क्षेत्रीय और सरल जनभाषाओं के माध्यम से प्रसारित करना। इस प्रकार, उनकी पदावली एक शक्तिशाली जनसंचार माध्यम बन गई, जिससे वे एक प्रभावी आध्यात्मिक और सामाजिक नेता के रूप में उभरे। विद्वानों का मत है कि उन्हें किसी विशिष्ट वाद या पंथ से जोड़े बिना, उनकी रचनाओं को शुद्ध भजन-कीर्तन मानकर ही उनका सटीक साहित्यिक मूल्यांकन संभव है ।
ऐतिहासिक और सामाजिक प्रभाव: नवजागरण और राष्ट्रीय चेतना
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ का प्रभाव उनके साहित्यिक दायरे से कहीं अधिक व्यापक था; उन्होंने 19वीं सदी में मिथिला की सामाजिक और राजनीतिक चेतना को आकार दिया।
सामाजिक और धार्मिक समन्वय
उन्नीसवीं सदी का भारतीय समाज रूढ़िवादिता और जातीय विभाजन से ग्रस्त था। गोसाईं जी ने इस चुनौती का सामना करते हुए धर्म, जाति और पंथ की सीमाओं को तोड़कर अपनी शिक्षाओं का प्रसार किया । उनके जीवनमूल्य और उपदेश (जो अकारादि दोहावली जैसे ग्रंथों में संकलित हैं) नैतिक आचरण, सामाजिक समरसता और आत्म-सम्मान पर केंद्रित थे, जो एक प्रगतिशील सामाजिक दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं।
उन्हें गोस्वामी तुलसीदास के बाद समन्वयवादी कवि मानने का निहितार्थ यह है कि उन्होंने केवल निर्गुण और सगुण का समन्वय नहीं किया, बल्कि समाज के विभिन्न वर्गों, जिसमें उच्च वर्ग के ब्राह्मणों से लेकर निम्न वर्ग के साधारण कृषक तक शामिल थे, के लिए समान रूप से स्वीकार्य और बोधगम्य मार्ग प्रशस्त किया।
उपनिवेश विरोधी चेतना का संचार
गोसाईं जी के कृतित्व का सबसे तीक्ष्ण और अकादमिक रूप से महत्वपूर्ण पहलू उनका औपनिवेशिक विरोधी रुख है। उनके भजनों में अंग्रेजी राजसत्ता के प्रति तीव्र घृणा का उल्लेख उनकी रचनाओं के राजनीतिक अर्थशास्त्र की गहराई से जाँच की आवश्यकता को रेखांकित करता है।
उनकी तुलना स्वामी दयानंद सरस्वती से करना, जिन्होंने संगठित रूप से राष्ट्रीय चेतना का प्रचार किया, यह संकेत देता है कि गोसाईं जी के मठ और अनुयायियों का नेटवर्क एक संगठित शक्ति के रूप में कार्य करता होगा। परसरमा और लखनौर जैसे धार्मिक केंद्र केवल आध्यात्मिक शिक्षा के लिए नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राष्ट्रीय प्रतिरोध के केंद्र भी रहे होंगे। यह संभावना प्रबल है कि उनके आध्यात्मिक संदेशों में गुप्त रूप से राजनीतिक संदेश शामिल किए जाते थे, खासकर 1857 के विद्रोह से जुड़े होने के दावे के संदर्भ में । उनका 'पौरुष का काव्य' मिथिला के निवासियों को आध्यात्मिक पतन और औपनिवेशिक दासता दोनों के प्रति 'जागृत' होने का आह्वान करता था।
विरासत, संस्थागत पहचान और वर्तमान प्रासंगिकता
संतमत सत्संग परंपरा में केंद्रीयता
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस की आध्यात्मिक विरासत संतमत सत्संग की परंपरा में अत्यंत महत्वपूर्ण है। उनकी वाणी (Santvani) और उपदेश आज भी इस परंपरा में आदर के साथ व्याख्या के लिए उपयोग किए जाते हैं । यह स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि वह महर्षि मेँहीँ परमहंस और उनके शिष्यों द्वारा प्रचारित संतमत आंदोलन के एक महत्वपूर्ण अग्रगामी आचार्य थे। गुरु चौबीसी जैसी रचनाएँ इस परंपरा में गुरु महिमा और साधना के महत्व को स्थापित करती हैं ।
जीवंत विरासत और सांस्कृतिक उत्सव
गोसाईं जी की विरासत आज भी बिहार के सुपौल और मधुबनी क्षेत्रों में जीवंत है। परसरमा में स्थित उनकी कुटी पर प्रतिवर्ष रथयात्राएं और उत्सव आयोजित किए जाते हैं । भक्तगण इन आयोजनों में उनके रचित भजन गाते हैं, जो उनकी स्थायी जन-लोकप्रियता को सिद्ध करता है। इन आयोजनों में स्थानीय जनप्रतिनिधियों की भागीदारी यह भी दर्शाती है कि उनका प्रभाव केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सामुदायिक जीवन का भी हिस्सा है।
अकादमिक मान्यता और राष्ट्रीय विमर्श
यद्यपि मैथिली मीडिया की शिथिलता के कारण उनकी रचनाओं का व्यापक प्रचार न हो पाना भारतीय साहित्य के लिए एक त्रासदी रहा है, हाल के वर्षों में उन्हें राष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए महत्वपूर्ण अकादमिक प्रयास किए गए हैं। साहित्य अकादेमी, नई दिल्ली के सहयोग से गोस्वामी लक्ष्मीनाथ संगीत महाविधालय, परसरमा, सुपौल में संत कवि पर केंद्रित परिसंवादों का आयोजन किया गया है ।
इन परिसंवादों का मुख्य उद्देश्य भारतीय साहित्य और दर्शन में लक्ष्मीनाथ गोसाईं के योगदान पर विमर्श करना था । यह प्रयास आवश्यक है क्योंकि उनकी बहुभाषी कृतियाँ—विशेष रूप से खड़ी बोली में वेदांत का अनुवाद और निर्गुण-सगुण का समन्वय—उन्हें 19वीं सदी के उन मौलिक भारतीय विचारकों की श्रेणी में ला खड़ा करती हैं, जिन्होंने शास्त्रीय ज्ञान को जनभाषा के माध्यम से पुनर्जीवित किया। उनका स्थान केवल मिथिला के कवि के रूप में नहीं, बल्कि भारतीय नवजागरण के एक मौलिक दार्शनिक और राष्ट्रीय चेतना के उत्प्रेरक के रूप में स्थायी रूप से स्थापित होना चाहिए।
भारतीय दर्शन और साहित्य में गोस्वामी लक्ष्मीनाथ का स्थायी महत्व
गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस भारतीय संत परंपरा के एक ऐसे शिखर पुरुष हैं, जिनके कृतित्व में ज्ञान, भक्ति और कर्म का त्रिवेणी संगम दिखाई देता है। उनका जीवन और साहित्य 19वीं सदी के मिथिलांचल के लिए एक प्रकाश स्तंभ के समान था, जिसने न केवल आध्यात्मिक मार्गदर्शन दिया, बल्कि सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को भी जागृत किया।
वे एक सिद्ध योगी और गहन अद्वैत वेदान्ती होते हुए भी, जनसाधारण के लिए सुलभ सगुण पदों की रचना करते थे, जिससे वे तुलसीदास के बाद निर्गुण-सगुण समन्वय के अद्वितीय आचार्य बन गए। उनके 'पौरुष के गीत' और उपनिवेश विरोधी भावना से ओतप्रोत रचनाएँ यह सिद्ध करती हैं कि उन्होंने आध्यात्मिक मुक्ति के साथ-साथ तत्कालीन राजनीतिक दासता से मुक्ति का संदेश भी दिया।
आज उनकी विरासत को संरक्षित करने और उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने के लिए उनके अप्रकाशित या कम प्रचारित कार्यों, जैसे योग रत्नावली और वाजसनेयोपनिषद का अनुवाद, का गंभीर आलोचनात्मक संपादन और व्यापक प्रकाशन आवश्यक है। गोस्वामी लक्ष्मीनाथ परमहंस भारतीय दार्शनिक इतिहास के एक अपरिहार्य व्यक्ति हैं, जिनकी ऊर्जा और प्रेरणा आज भी समाज को गति प्रदान करने की क्षमता रखती है।

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