नानाजी देशमुख: ग्रामीण पुनर्जागरण के शिल्पकार(11 अक्टूबर 1916 – 27 फरवरी 2010)

नानाजी देशमुख: ग्रामीण पुनर्जागरण के शिल्पकार(11 अक्टूबर 1916 – 27 फरवरी 2010) 

भूमिका 


नानाजी देशमुख (चंडिकादास अमृतराव देशमुख, 11 अक्टूबर 1916 – 27 फरवरी 2010) एक ऐसे महान सामाजिक कार्यकर्ता, विचारक और राजनेता थे, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन राष्ट्र सेवा, विशेषकर ग्रामीण आत्मनिर्भरता और सामाजिक उत्थान के लिए समर्पित कर दिया। वह भारतीय राजनीति के उस विरल उदाहरणों में से एक हैं, जिन्होंने सत्ता और पद की सर्वोच्चता को त्यागकर, साठ वर्ष की आयु के बाद खुद को पूरी तरह ग्राम सेवा में झोंक दिया। उन्हें मरणोपरांत 2019 में भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया।

प्रारंभिक जीवन और संघ से जुड़ाव

नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्टूबर 1916 को महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के कदोली गाँव में एक मराठी भाषी परिवार में हुआ था। उनका बचपन घोर अभावों में बीता; फीस और किताबें खरीदने के लिए उन्हें सब्जी बेचने तक का काम करना पड़ा। संघर्षपूर्ण प्रारंभिक जीवन के बावजूद, उनकी शिक्षा के प्रति उत्कट अभिलाषा थी, जिसके चलते उन्होंने पिलानी के बिरला इंस्टीट्यूट से उच्च शिक्षा प्राप्त की।
युवावस्था में ही वह लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की राष्ट्रवादी विचारधारा से प्रेरित हुए। 1930 के दशक में, वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) में शामिल हो गए और 1940 में पूर्णकालिक प्रचारक बन गए। संघ के प्रचारक के रूप में, उन्होंने अपना कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश और राजस्थान को बनाया, जहाँ उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के साथ मिलकर संगठन को मजबूत करने का कार्य किया।

राजनीतिक जीवन में अमूल्य योगदान

नानाजी देशमुख भारतीय जनसंघ (बाद में जनता पार्टी और फिर भारतीय जनता पार्टी) के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। उनका राजनीतिक जीवन उनकी सांगठनिक क्षमता और ईमानदारी के लिए जाना जाता है।

 संगठन शिल्पी: उन्होंने उत्तर प्रदेश में जनसंघ के काम को व्यवस्थित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1967 तक, उनके प्रयासों से जनसंघ का कार्य प्रदेश के लगभग सभी जिलों में पहुँच चुका था।

  आपातकाल का विरोध: 1975 के आपातकाल के दौरान उन्होंने 'लोक संघर्ष समिति' के महासचिव के रूप में इंदिरा गांधी सरकार के विरुद्ध बने आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।

  सत्ता का त्याग (60 की लक्ष्मण रेखा): 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तो नानाजी बलरामपुर से सांसद चुने गए और प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई उन्हें मंत्री पद देना चाहते थे। लेकिन नानाजी ने यह कहते हुए मंत्री पद ठुकरा दिया कि 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को राजनीति से संन्यास लेकर समाज सेवा का कार्य करना चाहिए। यह निर्णय भारतीय राजनीति के इतिहास में त्याग और उच्च नैतिक मूल्यों का एक दुर्लभ उदाहरण है।

ग्रामोदय संकल्प और चित्रकूट मॉडल

राजनीति से संन्यास लेने के बाद, नानाजी देशमुख ने अपने शेष जीवन को ग्रामीण विकास और आत्मनिर्भरता के लिए समर्पित कर दिया। उनका मानना था कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है और असली राष्ट्र-निर्माण वहीं संभव है।
 दीनदयाल शोध संस्थान: उन्होंने दीनदयाल उपाध्याय के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए 1968 में दीनदयाल शोध संस्थान की स्थापना की। इसी संस्थान के माध्यम से उन्होंने ग्रामीण पुनर्जागरण का कार्य किया।

  चित्रकूट मॉडल: नानाजी ने मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की सीमा पर स्थित चित्रकूट क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया। यहाँ उन्होंने एक अद्वितीय ग्रामीण विकास मॉडल स्थापित किया, जिसे आज 'चित्रकूट मॉडल' के नाम से जाना जाता है। इस मॉडल का उद्देश्य था:

 स्वावलंबन (आत्मनिर्भरता): गाँव का पैसा गाँव में रहे और गाँव के लोग अपनी समस्याओं का समाधान खुद करें।

शिक्षा और स्वास्थ्य: गाँव के लोगों को सुलभ शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएँ प्रदान करना (आरोग्य धाम)।

संस्कार और मानव विकास: केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मानव के जीवन के सभी आयामों पर ध्यान केंद्रित करना।

चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय: उन्होंने ग्रामीण विकास और अनुसंधान के लिए भारत के पहले ग्रामीण विश्वविद्यालय, चित्रकूट ग्रामोदय विश्वविद्यालय की स्थापना की।

नानाजी देशमुख का जीवन निस्वार्थ सेवा, अनुशासन और अटूट राष्ट्रभक्ति का प्रतीक था। उनका ग्रामीण विकास मॉडल आज भी लाखों लोगों के लिए प्रेरणा है और भारत के गाँवों के भविष्य के लिए एक व्यावहारिक मार्ग दिखाता है।

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